पुस्तक के विषय में
भारतेन्दु युग हिन्दी साहित्य का सबसे जीवन्त युग रहा है। सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक-आर्थिक हर मुद्दे पर तत्कालीन रचनाकारों ने ध्यान दिया, और अपना अभिमत व्यक्त किया, जिसमें उनकी राष्ट्रीय ओर जनवादी दृष्टि का उन्मेष हे वे साहित्यकार अपने देश की मिट्टी से, अपनी जनता से, उस जनता की आशा- आकांक्षाओं से जुड़े हुए थे, जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण उनकी रचनाएँ हैं । लेकिन उनकी, उनके युग की इस भूमिका को सही परिप्रेक्ष्य में देखने-समझने का प्रयास पहली बार डॉ. रामविलास शर्मा ने ही किया वे ही हिन्दी के पहले आलोचक हैं, जिन्होंने भारतेन्दु-युग में रचे गए साहित्य के जनवादी स्वर को पहचाना ओर उसका सन्तुलित वैज्ञानिक मूल्यांकन किया । प्रस्तुत पुस्तक इसीलिए ऐतिहासिक महत्व की है कि उसमें भारतेन्दु-युग की सांस्कृतिक विरासत को, उसके जनवादी रूप. को पहली बार रेखांकित किया गया है। लेकिन पुस्तक में जैसे एक ओर उस युग में रचे गए साहित्य की मूल प्रेरणाओं ओर प्रवृत्तियों का विवेचन है, वैसे ही दूसरी ओर प्राय: तीन शताब्दियों के भाषा-सम्बन्धी विकास की रूपरेखा भी प्रस्तुत है, जो डॉ. शर्मा के भाषा-सम्बन्धी गहन अध्ययन का परिणाम है।
लेखक के विषय में
जन्म: 10, अक्तूबर, 1912 ।
जन्म स्थान : ग्राम ऊँचगाँव सानी, जिला उन्नाव (उत्तर प्रदेश) ।
शिक्षा:1932 में बी.ए., 1934 में एम.ए. (अंग्रेजी), 1938 में पी-एच.डी. (लखनऊ विश्वविद्यालय) । लखनऊ विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में पाँच वर्ष तक अध्यापन-कार्य किया। सन् 1943 से 1971 तक आगरा के बलवन्त राजपूत कॉलेज में अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष रहे। बाद में आगरा विश्वविद्यालय के कुलपति के अनुरोध पर के. एम. हिन्दी संस्थान के निदेशक का कार्यभार स्वीकार किया और 1974 में अवकाश लिया।
सन् 1949 से 1953 तक रामविलासजी अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के महामन्त्री रहे। देशभक्ति तथा मार्क्सवादी चेतना रामविलासजी की आलोचना का केन्द्र-बिन्दु हैं । उनकी लेखनी सेवाल्मीकि तथा कालिदास से लेकर मुक्तिबोध तक की रचनाओं का मूल्यांकन प्रगतिवादी चेतना के आधार पर हुआ। उन्हें न केवल प्रगति-विरोधी हिन्दी- आलोचना की कला एवं साहित्य-विषयक भ्रान्तियों के निवारण का श्रेय है, वरन् स्वयं प्रगतिवादी आलोचना द्वारा उत्पन्न अन्तर्विरोधों के उन्मूलन का गौरव भी प्राप्त है।
सम्मान: केन्द्रीय साहित्य अकादेमी का पुरस्कार तथा अकादमी, दिल्ली का शताब्दी सम्मान ।
देहावसान: 30 मई, 2000
प्रथम संस्करण की भूमिका
यह पुस्तक भारतेन्दु-युग का इतिहास नहीं है। उसका एक रेखा-चित्र कहना भी इसको अत्यधिक महत्व देना होगा । मैंने उस युग के साहित्य को जो थोड़ा-बहुत पढ़ा है, उससे इतना समझता हूँ कि उसका इतिहास लिखने के लिए ऐसी कई पुस्तकों की आवश्यकता होगी । इस अधूरे रेखाचित्र की सार्थकता इस कारण है कि अभी भारतेन्दु-युग का अलग से कोई इतिहास लिखा नहीं गया । उसके अनेक महारथियों पर अलग-अलग पुस्तकों की गुन्जाइश है । जब तक यह सब नहीं होता तब तक हिन्दी साहित्य का विकास क्रम समझने के लिए इतने ही से सन्तोष करना होगा । भारतेन्दु ने सं० १९२५ में 'कवि-वचन-सुधा' का प्रकाशन आरम्भ किया था । सम्वत् १९५७ में 'सरस्वती' का प्रकाशन आरम्भ हुआ। इन्हीं तीस-चालीस वषों की अवधि में भारतेन्दु- युग सीमित है। इन वर्षों में आधुनिक हिन्दी भाषा और साहित्य की नींव डाली गयी। यह स्वाभाविक है कि किसी बीते युग के बारे में लिखते हुए हमारा ध्यान अपने युग और उसकी समस्याओं की ओर भी जाय । यदि मुझे भारतेन्दु-युग से आज के युग का एक घनिष्ठ सम्बन्ध न दिखायी देता तो मैं यह पुस्तक अभी न लिखता । यह सोचकर कि आज की समस्याओं को सुलझाने के लिए हमें उस युग से कुछ प्रेरणा मिल सकती है, मैंने इसे लिखना प्रारम्भ किया।
भारतेन्दु-युग की बहुत-सी बहुमूल्य सामग्री पुरानी पत्रिकाओं में बन्द पड़ी है । उस समय की प्रकाशित पुस्तकें कठिनता से काशी नागरी प्रचारिणी सभा के पुस्तका- लय में भी मिलती हैं । उस समय के साहित्य का प्रकाशन रिसर्च की दृष्टि से ही नहीं, वृद्ध साहित्यिक दृष्टि से भी, शीघ्र किया जाना चाहिए। हिन्दी साहित्य- सम्मेलन ने 'प्रेमघन-सर्वस्व' नामक कविता-संग्रह छापा है । इसका कागज मोटा और कीमती है । मोटी खद्दर की जिल्द है । मूल्य है ४।।) । प्रेमघनजी की कविताओं का पूरा संग्रह नही है, केवल प्रथम भाग है । शायद न पहला भाग बिकेगा और न दूसरा भाग प्रकाशित होगा। ऐसे ही अनेक सज्जनों के दान से भारतेन्दु की कविताओं का एक कीमती संग्रह छपा है। भारतेन्दु-युग के लेखक अपनी पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों का मूल्य औसत चार आने या आठ आने रखते थे। प्रतापनारायण मिश्र के प्रसिद पत्र 'ब्राह्मण' का मूल्य दो आना था। उन लोगों ने साधारण जनता में प्रचार के लिए अपना साहित्य रचा था । कीमती सजिल्द पुस्तकों में बन्द करके रखने के लिए नहीं-जिल्द चाहें खद्दर की ही क्यों न हो । उनके साहित्य को साधारण जनता के लिए अप्राप्य मूल्य में प्रकाशित करना पाप है। बङ्गाल में जैसे बंकिमचन्द्र, मधुसूदन दत्त आदि के ग्रन्थ सस्ते मूल्य में सुलभ हैं, वैसे ही ऊपरी तड़क-भड़क का विचार छोडकर सस्ते मूल्य में उस साहित्य को सबके लिए प्रकाशित कर देना चाहिए। विशेषकर उस समय की गद्य रचनाओं को शीघ्र ही पुस्तक रूप में जनता तक पहुँचाना चाहिए।
व्याकरण और शैली की दृष्टि से भारतेन्दु-युग के गद्य का यथेष्ट विवेचन हो चुका है । इसलिए मैंने उस पर विशेष कुछ नहीं लिखा । मैंने पाठकों का ध्यान उन बातों की ओर अधिक आकर्षित किया है जिन्हें तब के लेखक जनता तक पहुंचाना चाहते थे । द्विवेदी-युग में भाषा का अच्छी तरह से संस्कार हो गया । परन्तु उस काट छाँट में उसकी सजीवता भी थोडी-बहुत छँट गयी । आज के लेखकों से अनुरोध है कि वे तब की भाषा का वह भाग छोड़ दें जो अनगढ़ है, वे उसके सवेग प्रवाह को देखें जिसमें व्यंग्य और हास्य की कलकल ध्वनि गूंज रही है । आलोचना, दर्शन, विज्ञान आदि के लिए यह शैली उपयुक्त नहीं है, न तब ही इन विषयों पर लिखते समय उसका प्रयोग किया गया था। जो बातें हम साधारण पाठकों के लिए लिखते हैं, उनमें उस शैली को अपनाना वान्छनीय है।
मुझे इस पुस्तक के लिखने में पं० श्रीनारायण चतुर्वेदी तथा अपने मित्र श्री ब्रजकिशोर मिश्र और श्री प्रेमनारायण टण्डन से अनेक प्रकार की सहायता एवं प्रेरणा मिली है । इसके लिए मैं उनका कृतज्ञ हूँ।
काशी नागरी-प्रचारिणी-सभा के 'मिसिरजी' का अलगसे उल्लेख करना आवश्यक है। पारसाल गर्मी के दिनों में यही मुझे आर्यभाषा पुस्तकालय में विविध पाठ्य-सामग्री खोजकर दिया करते थे। कभी-कभी द्विवेदीजी की अल्मारियों में पुस्तकें ढूंढते-ढूंढते उनके माथे पर श्रम-बिन्दु झलकने लगते थे, कभी-कभी पीठ पसीने से तर हो जाती थी । मिसिरजी का काम पुस्तकालय की देखभाल करना और पुस्तकें निकालकर देना था । हिन्दी साहित्य और साहित्यिकों के बारे में उनकी जानकारी अद्भुत थी । सुधाकर द्विवेदी के बारे में वह ऐसे बातें करते थे जैसे जनम से ही उनकी जीवन-कथा सुनते आये हों। पुराने साहित्यिकों के बारे में जानकारी और जानने की उत्सुकता जैसी मैंने मिसिरजी में देखी, वैसी 'विद्वानों' में कम देखी है। आशा है, उन्हें अपने परिश्रम को इस पुस्तक के रूप में देखकर प्रसन्नता होगी।
अनुक्रम
1
भारतेन्दु-युग और जन-साहित्य
9
2
राजभक्ति और देशभक्ति
15
3
पत्र और पत्रकार
23
4
पत्र-साहित्य और प्रगति
30
5
सभा-समिति और व्याख्यान
38
6
नाटककार-काशिनाथ और हरिश्चन्द्र
45
7
नाटककार-श्रीनिवासदास और प्रतापनारायण मिश्र
55
8
नाटककार-राधाचरण गोस्वामी और उनके दो प्रहसन
63
निबन्ध-रचना - अद्भुत स्वप्न और यमलोक की यात्रा
70
10
निबन्ध रचना - स्वर्ग में केशवचन्द्र सेन और स्वामी दयानन्द
76
11
निबन्ध रचना-प्रतापनारायण मिश्र तथा अन्य निबन्धकार
81
12
निबन्ध-रचना -बालकृष्ण भट्ट और हिन्दी आलोचना का जन्म
87
13
उपन्यास और यथार्थवादी परम्परा
93
14
कविता-भारतेन्दु और प्रतापनारायण मिश्र
100
कविता-प्रेमघन तथा अन्य कवि
111
16
कविता-खड़ी बोली और ब्रजभाषा
116
17
भारतेन्दु-युग और उन्नीसवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध
122
18
प्यारे हरीचन्द की कहानी रह जायेगी
126
19
हिन्दी भाषा की विकास-परम्परा और भारतेन्दु-युग
136
20
सूरति मिश्र की 'बैताल पचीसी' और लल्लू जी लाल
280
21
गद्य और पद्य में खड़ी बोली- १८७६ ई० से पहले
302
22
भारतेन्दु-युग और उर्दू
316
स्वत्व निज भारत गहै
330
24
परिशिष्ट- १
346
25
परिशिष्ट- २
350
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