भूमिका
जर्मनी के महाकवि गेटे ने कहा है कि एक महान् चिन्तक जो सबसे बड़ा सम्मान आगामी पीढियों को अपने प्रति अर्पण करने के लिए बाध्य करता है, वह है उसके विचारों को समझने का सतत प्रयत्न । महर्षि भरत ऐसे ही महान् चिन्तक थे, जिन्हें समझने की चेष्टा मनीषियो ने शताब्दियों से की है, परन्तु जिनके विषय में कदाचित् कोई भी यह न कहेगा कि अब कुछ कहने को शेष नहीं है । उनके रस-सिद्धान्त पर बड़े- बड़े कवियो और समालोचकों ने बहुत कुछ लिखा है और अभी न जाने कितने ग्रन्थ लिखे जायँगे । उन्होंने संगीत पर कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नही लिखा, उनका ग्रन्थ है नाट्य- शास्त्र । अपने यहाँ संगीत नाटक का प्रधान अत्र माना गया है । भरत ने नाटघ में संगीत का महत्व इन शब्दों में स्वीकार किया है-
''गीते प्रयत्न प्रथमं तु कार्य. शग्या हि नाटयस्य वदन्ति गीतम् ।
गीते च वाद्ये च हि सुप्रयुक्ते नाटय-प्रयोगों न विपत्तिमेंति ।।''
अर्थात् नाटक-प्रयोक्ता को पहले गीत का ही अभ्यास करना चाहिए, क्योंकि गीत नाटक की शय्या है। यदि गीत और वाद्य का अच्छे प्रकार से प्रयोग हो, तो फिर नाटय- प्रयोग में कोई कठिनाई नहीं उपस्थित होती।
अत: भरत ने अपने नाटचशास्त्र में संगीत पर भी कुछ अध्याय लिखे हैं, किन्तु इन थोडे से ही अध्यायों में उन्होंने संगीत के सब मूलभूत सिद्धान्तो का प्रतिपादन कर दिया है और उनके साथ ही अपने समय के 'जातिगान' का भी वर्णन किया है । काल- गति से भरतकालीन संगीत में कुछ अन्तर आ गया और उन्होंने इस सम्बन्ध में जो कुछ लिखा है, वह दुर्बोध होने लगा । मतग्ङ के समय में भी-जिनका काल प्रो० रामकृष्ण कवि के अनुसार नवीं शती ई० है-भरत के सिद्धान्तो का समझना कठिन हो गया था । फिर भी भरत-सम्प्रदाय के समझनेवाले शार्ङ्गदेव के काल (13 वीं शती ई०) तक वर्तमान थे । उसके अनन्तर भरत-सम्प्रदाय का लोप-सा ही हो गया। भरत ने संगीतपर जो कुछ लिखा है, वह बहुत ही सक्षिप्त रूप में है । साथ ही उनके समय के संगीत की सज्ञाएँ भी धीरे-घीरे बदलती गयी, इसलिए उनके सिद्धान्त को समझना कठिन हो गया । अतीत में उनके विचारों को स्पष्ट करने के लिए मतग्ङ, नान्यदेव, अभिनव- गुप्त, कुम्भ, शानिदेव इत्यादि विद्वानो ने अपने-अपने ग्रन्थों में पर्याप्त रूप से लिखा। इधर बीसवीं शती में भरत पर फिर चर्चा प्रारम्भ हुई । श्री क्लेमेंण्ट्स्, श्री देवल, प्रो० परान्जपे, प० विष्णुनारायण भातखण्डे, श्री कृष्णराव गणेश मुले और प० ओकारनाथ ठाकुर इत्यादि विद्वानो ने भरत के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। श्री कृष्णराव गणेश मुले ने अपने मराठी ग्रन्थ 'भारतीय सङ्गीत' में भरत-सिद्धान्त का विस्तृत रूप से वर्णन किया है। मैंने कुछ मराठी मित्रो की सहायता से यह ग्रन्थ पढ़ा। इससे मुझे भरत-सिद्धान्त को समझने में बडी सहायता मिली। मैं यह सोचता था कि यदि इसका अनुवाद हिन्दी में हो जाता तो बहुत अच्छा होता। हिन्दी में इस प्रकार के ग्रन्थ का अभाव मुझे खटकता रहा। यह बड़े हर्ष का विषय है कि प० कैलासचन्द्र देव बृहस्पति ने इस अभाव की पूर्ति कर दी है । आपका 'भरत का सगीत-सिद्धान्त' किसी ग्रन्थ का अनु- वाद नहीं है। आपने भरत के मूल नाटयशास्त्र, मतत्ग्ङ की वृहद्देशी, शानिदेव के सङ्गीत- रत्नाकर इत्यादि ग्रन्थो का बीस वर्ष से अध्ययन और मथन किया है । आप सस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित हैं और साथ ही आपको संगीत का क्रियात्मक ज्ञान भी है । अत. आप भरत पर लिखने केलिए बहुत ही उपयुक्त अधिकारी हैं। आपने छ:-अध्यायो में भरत के मुख्य सिद्धान्तो का, बहुत ही सुन्दर विश्लेषण किया है और कुछ ज्ञातव्य विषयों पर चार अनुबन्ध भी जोड दिये हैं । आपने मूल ग्रन्थों का परिशीलन तो किया ही है, प्रो० रामकृष्ण कवि के 'भरत-कोश' का भी पूरा उपयोग किया है। ग्रन्थ भर में आपने किसी अन्य ग्रन्थकार का कहीं व्यक्तिगत खण्डन नहीं किया है। आपका ग्रन्थ केवल मण्डनात्मक है, इसे पढकर विज्ञ पाठक स्वयं नीर-क्षीर-विभेद कर सकेंगे।
भूमिका-लेखक के लिए एक बड़ी कठिनाई यह होती है कि यदि वह ग्रन्थ के विषयों पर अपनी भूमिका में ही बहुत कुछ कह देता है तो वह ग्रन्थकार के साथ अन्याय करता है, क्योंकि प्रतिपाद्य विषयों पर ग्रन्थकार का विचार पाठक को ग्रन्थ से ही मिलना चाहिए। यदि वह प्रतिपाद्य विषयों पर कुछ नहीं कहता, तो भी वह ग्रन्थकार के साथ अन्याय करता है, क्योकि फिर वह ग्रन्थ के प्रति पाठको का ध्यान ही नही आकृष्ट कर सकता। मैंने इस उभयापत्ति के मध्य का मार्ग ग्रहण किया है। अत: इस भूमिका में कुछ सकेत मात्र कर रहा हूं जिससे पाठक यह जान जायँ कि प्रतिपाद्य विषय क्या है परन्तु उनको विस्तृत रूप से जानने की उत्सुकता बनी रहे।
प्रकाशकीय
इस ग्रन्थ के लेखक स्वर्गीय आचार्य बृहस्पति न केवल कुशल शास्त्रीय संगीतज्ञ थे, अपितु इस प्राचीन विधा के प्रकाण्ड पण्डित तथा अध्येता थे।
उन्नीसवीं शताब्दी के भारतीय पुनर्जागरण के क्रम में ही इस शताब्दी के प्रारंभिक दशकों में भारतीय संगीत परम्परा का प्रतिष्ठित करने के लिए हमारे मनीषियों ने भगीरथ प्रयत्न किए। इनमें भातखण्डे भी अग्रणी थे। यह उनकी साधना का ही फल है कि संगीत, जो सामन्ती विलासिता का अंग बनकर एक वर्ग विशेष तक सीमित होकर रह गया था और मध्यवर्ग जिसे हेय दृष्टि से देखता था, उसकी आज समाज में महत्वपूर्ण सम्मानित भूमिका है। भरत के संस्कृत भाषा में प्रतिपादित दुरूह संगीत सिद्धांतों को सामान्य संगीत प्रेमियों तक पहुँचाने का आचार्य बृहस्पति का यह बहु प्रशंसित प्रयास स्तुत्य है ।
32 वर्ष पूर्व इसका प्रकाशन हिन्दी समिति ग्रन्थमाला के अन्तर्गत हुआ था। इसका नया संस्करण स्म पाठकों की सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं। इसके द्वारा न केवल संगीत कला, विज्ञान, वाद्य, यंत्र आदि की जानकारी होती है, इसके कुछ अध्याय तो सबकी रुचि के हैं जैसे ''श्रुतियों की अनन्तता और देशी रागों में प्रयोज्य ध्वनियाँ'' या "भारतीय संगीत की महान विभूतियाँ'' ।
मैं आशा करता हूँ कि पहले के समान इस संस्करण का भी विद्वानों, संगीत प्रेमियों और विद्यार्थियों द्वारा स्वागत होगा।
विषय-सूची
1
7
2
प्राक्कथन
21-48
3
प्रथम अध्याय
1-33
4
द्वितीय अध्याय
34-73
5
तृतीय अध्याय
74-134
6
चतुर्थ अध्याय
135-190
पंञ्चम अध्याय
191-198
8
षष्ठ अध्याय
199-233
9
अनुबन्ध (1)
234-255
10
अनुबन्ध (2)
256-275
11
अनुबन्ध (3)
276-281
12
अनुबन्ध (4)
290-314
13
देवभट्ट-कल्लिनाथ
315-316
14
उपजीव्य सामग्री
317
15
अनुक्रमणिका
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