पुस्तक के बारे में
... ''कैसा आश्चर्य था कि वही चन्दन, जो कभी सड़क पर निकलती अर्थी की रामनामी सुनकर माँ से चिपट जाती थी, रात-भर भय से थरथराती रहती थी, आज यहाँ श्मशान केबीचोंबीच जा रही सड़क पर निःशंक चली जा रही थी । कहीं पर बुझी चिताओं के घेरे से उसकी भगवा धोती छू जाती, कभी बुझ रही चिता का दुर्गंधमय दुआ हवा के किसी झोंके के साथ नाक-मुँह में घुस जाता ।...''जटिल जीवन की परिस्थितियों ने थपेड़े मार-मारकर सुन्दरी चन्दन को पतिगृह से बाहर किया और भैरवी बनने को बाध्य कर दिया । जिस ललाट पर गुरु ने चिता-भस्मी टेक दी होक्या उस पर सिन्दूर का टीका फिर कभी लग सकता है? शिवानी के इस रोमांचकारी उपन्यास में सिद्ध साधकों और विकराल रूपधारिणी भैरवियों की दुनिया में भटक कर चली आई भोली, निष्पाप चन्दन एक ऐसी मुक्त बन्दिनी बनजाती है, जो सांसारिक प्रेम-सम्बन्धों में लौटकर आने की उत्कट इच्छा के बावजूद अपनी अन्तरात्मा की बेड़ियाँ नहीं त्याग पाती और सोचती रह जाती है-क्या वह जाए? पर कहाँ?
भैरवी
शिवानी
गौरा पंत 'शिवानी' का जन्म 17 अक्टूबर 1923 को विजयादशमी के दिन राजकोट (गुजरात)में हुआ। आधुनिक अग्रगामी विचारों के समर्थक पिता श्री अश्विनीकुमार पाण्डे राजकोट स्थित राजकुमार कॉलेज के प्रिंसिपल थे, जो कालांतर में माणबदर और रामपुर की रियासतों में दीवान भी रहे । माता और पिता दोनों ही विद्वान्संगीतप्रेमी और कई भाषाओं के ज्ञाता थे । साहित्य और संगीत कै प्रति एक गहरी रुझान 'शिवानी' को उनसे ही मिली । शिवानी जी के पितामह संस्कृत के प्रकांड विद्वान-पं.हरिराम पाण्डे, जो बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में धर्मोपदेशक थे,परम्परानिष्ठ और कट्टर सनातनी थे । महामना मदनमोहन मालवीय से उनकी गहन मैत्री थी।
वे प्राय: अल्मोड़ा तथा बनारस में रहते थे, अत: अपनी बड़ी बहन तथा भाई के साथ शिवानी जी का बचपन भी दादाजी की छत्रछाया में उक्त स्थानों पर बीता । उनकी किशोरावस्था शान्तिनिकेतन में, और युवावस्था अपने शिक्षाविद् पति के साथ उत्तर प्रदेश के विभिन्न भागों में । पति के असामयिक निधन के बाद वे लम्बे समय तक लखनऊ में रहीं और अन्तिम समय में दिल्ली में अपनी बेटियों तथा अमरीका में बसे पुत्र के परिवार के बीच अधिक समय बिताया । उनके लेखन तथा व्यक्तित्व में उदारवादिता और परम्परानिष्ठता का जो अद्भुत मेलहै, उसकी जड़ें इसी विविधमयतापूर्ण जीवन में थीं ।शिवानी की पहली रचना अल्मोड़ा से निकलनेवाली 'नटखट' नामक एक बाल पत्रिका में छपी थी । तब वे मात्र बारह वर्ष की थीं । इसके बाद वे मालवीय जी की सलाह पर पढ़ने के लिए अपनी बड़ी बहन जयंती तथा भाई त्रिभुवन के साथ शान्तिनिकेतन भेजी गई, जहाँ स्कूल तथाकॉलेज की पत्रिकाओं में बांग्ला में उनकी रचनाएँ नियमित रूप से छपती रहीं । गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर उन्हें 'गोरा' पुकारते थे । उनकी ही सलाह पर, कि हर लेखक को मातृभाषा में ही लेखनकरना चाहिए, शिरोधार्य कर उन्होंने हिन्दी में लिखना प्रारम्भ किया ।'शिवानी' की पहली लधु रचना 'मैं मुर्गा हूँ 1951 में धर्मयुग में छपी थी । इसके बाद आई उनकी कहानी 'लाल हवेली' और तब से जो लेखन-क्रम शुरू हुआ, उनके जीवन के अन्तिम दिनों तक अनवरत चलतारहा । उनकी अन्तिम दो रचनाएँ 'सुनहॅु तात यह अकथ कहानी' तथा 'सोने दे' उनके विलक्षण जीवन पर आधारित आत्मवृतात्मक आख्यान हैं।
1979 में शिवानी जी को पद्मश्री से अलंकृत किया गया । उपन्यास, कहानी, व्यक्तिचित्र, बाल उपन्यास और संस्मरणों के अतिरिक्त, लखनऊ से निकलनेवाले पत्र 'स्वतन्त्र भारत' के लिए'शिवानी' ने वर्षो तक एक चर्चित स्तम्भ 'वातायन' भी लिखा । उनके लखनऊ स्थित आवास-66, गुलिस्तां कालोनी के द्वार लेखकों, कलाकारों, साहित्य प्रेमिया के साथ समाज केहर वर्ग से जुड़े उनके पाठकों के लिए सदैव खुले रहे । 21 मार्च 2003 को दिल्ली में 79 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ।
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