पारिवारिक विघटन, अकेलापन, आधुनिक जीवन की चुनौतियाँ और अनवरत तनाव वर्तमान जीवन के यही घातक आज हमारी मनोरचना का निर्माण करते है, जिसका स्वाभाविक नतीजा होता है विभिन्न मनोविकारों का जन्म और दिन प्रतिदिन मनोरोगों और मनोरोगियों की संख्या में बढ़ोतरी | समाज का सामूहिक अनुभव प्रमाण है की मनोरोग अन्य किसी भी शारीरिक रोग से न सिर्फ ज़्यादा गंभीर होते है, बल्कि पीड़ादायक भी | मनोरोगी स्वयं तो उस अवस्था में होता है की उसे अपनी पीड़ा का अनुभव नही होता, उसकी पीड़ा दरअसल उन लोगों के हिस्से में आ जाती है जो उसके आसपास रहते है, उसके सम्बन्धी, रिश्तेदार,मित्र परिजन | उन्हें न सिर्फ उसकी परिचर्या और उपचार आदि के लिए अपने सुख चैन की बलि देनी होती है, बल्कि उस सामाजिक लांछन को भी झेलना पड़ता है जो हमारे समाज में मनोरोगों के साथ जुड़ा हुआ है | यह उपन्यास मनोरोग और उसके सामाजिक, वैयक्तिक पहलुओं का अन्वेषण करते हुए स्नेह और प्रेम के उस बंधन को रेखांकित करता है जो भारतीय समाज के ताने बाने का आधार है | यही वह तत्त्व है जिसके चलते भारत में मनोरोगियों को परिवार का अंग बनाकर रखने की परम्परा चली आई है और जो विदेशों में देखने को नही मिलती |
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