गंगा, यमुना और सरस्वती के संगम को पावन और पुनीत कहा गया है। तभी तो उस स्थान को तीरथराज प्रयाग कहा गया है। गंगा और यमुना की धाराएँ तो वहाँ सतत् बहती हुई और मिलती हुई दिखाई देती हैं लेकिन सरस्वती की धारा गुप्त है, गुह्य है। ऐसे ही ज्ञान योग और कर्मयोग की दो धाराएँ स्पष्टतः दिखाई देती हैं लेकिन सरस्वती के समान अविरल भक्ति धारा गुप्त है, गुह्य है। कर्मयोग और ज्ञानयोग की धाराएँ शास्त्रों में प्रतिपादित हैं, बुद्धिगम्य हैं, वाद-विवाद ग्रसित हैं लेकिन अविरल भक्ति की धारा भाव और अद्धा की धारा है, अचल विश्वास और निष्य की धारा है। इसमें परम प्रभ पार-ब्रह्म केवल बुद्धि का विषय नहीं रहता या दार्शनिकों का केवल मात्र व्यसन नहीं रहता बल्कि निर्विकार, निराकार, अचित्य हंस प्रभु सगुण एवं सविशेष गुण वाला हो उठता है। इसीलिए जिसमें ज्ञानयोग, कर्मयोग लय हो जाते हैं यह भक्ति की धारा गुप्त होते हुए भी सरस्वती के समान इस संगम को महान् बना देती है। जैसे सुषुम्ना के जागृत होने से जीव जागृत हो जाता है और भव-बंधन से मुक्त होकर ब्रह्मानन्द में लीन हो जाता है ऐसे ही अविरल भक्तिधारा के जागृत होने पर और शानयोग और कर्मयोग के साथ मिलने पर ज्ञान और कर्म प्रतिफलित और सार्थक हो जाते हैं। इसीलिए तो ज्ञानयोग और कर्मयोग से भी श्रेष्ठ है भक्तियोग क्योंकि ज्ञान एवं कर्म को अविरल भक्ति अपने में समाहित कर लेती है, जैसे समुद्र सब नदियों को अपने अन्दर समा लेता है। स्वयं भगवान भी इस भक्ति भाव से खिचे हुए भक्त के सामने प्रकट हो जाते हैं। ज्ञानी भगवान को बौद्धिक दृष्टि से देखता है लेकिन भक्त हृवय की आँख से देखता है। हृदय का पलड़ा सवैव भारी रहा है। ऊधो के समझाने पर भी गोपियाँ कृष्ण के निर्गुण स्वरूप को न समन्न पाई। जिसे सगुण रूप का आनन्द आ गया हो, जिसका हृदय उसके अविरल प्रेम में गद्गद् हो उठा हो, उसे फिर ज्ञान की थोथी बातें कहाँ अच्छी लगती हैं! भक्त के लिए वह परम तत्व एक जीता-जागता महामानव है, महाप्रभु है जो आतुर भाव से बुलाने पर सुनता है, जो बेसहारों का सहारा है, अबलों का बल है। संत सूरदास कहते हैं-
सुनेरी मैंने निर्बल के बल राम ।
भक्ति है निरंतर प्रभु के सच्चे नाम का सुमिरण और प्रभ सरीखे तत्वज्ञानियों और महापुरुषों की सेवा। इन्हीं महान पुरुषों के मुखारविन्द से निःसूत होता है वह जो वाणि से परे है, इन्हीं महान् पुरुषों के व्यक्तित्व से झलकता है वह जो अदृश्य है। इन्हीं की संगति से और चरणों की रज से दूर होते हैं माया के परदे और तब होता है व्यक्त जो अव्यक्त है।
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