पुस्तक के बारे में
जैसे अंधेरे में कोई अचानक दीये को जला दे, को और जहां कुछ भी दिखाई न पड़ता हो-वहां सभी कुछ दिखाई पड़ने लगे, ऐसे ही जीवन के अंधकार में समाधि का दीया है । या जैसे कोई मरुस्थल में वर्षों से वर्षा न हुई हो और धरती के प्राण पानी के लिए प्यास से तड़पते हों, और फिर अचानक मेघ घिर जाएं और वर्षा की बूंदे पड़ने लगें, तो जैसा उस मरुस्थल के मन में शांति और आनंद नाच उठे, ऐसा ही जीवन के मरुस्थल में समाधि की वर्षा है । या जैसे कोई मरा हुआ अचानक जीवित हो जाए और जहां श्वास न चलती हो-वहाँ श्वास चलने लगे, और जहां आखें न खुलती हो वहा आखें खुल जाएं, और जहां जीवन तिरोहित हो गया था वहा वापस उसके पदचाप सुनाई पड़ने लगें, ऐसा ही मरे हुए जीवन में समाधि का आगमन हैं ।
समाधि मैं ज्यादा महत्वपूर्ण जीवन में कुछ भी नहीं है । न तो कोई आनंद मिल सकता है समाधि के बिना, न कोई शांति मिल सकती है, न कोई सत्य मिल सकता है ।
प्रवेश से पूर्व
समाधि-अध्यात्म के क्षितिज पर दूर चमकता हुआ दैदीप्यमान सितारा । साधकों को सदा पुकारता, हुआ, अपनी ओर खींचता हुआ । इस पथ पर चलने वालों में से कितने पहुंचते है पता-नहीं, लेकिन पहुंचने की आस लेकर बहुत से चल पड़ते है । इस बहुवर्णित समाधि का द्वार कैसा होगा? आमतौर पर लोग सोचेंगे, होगा बड़ी भारी सिद्धियों से, यौगिक ऊंचाइयों से आभूषित । लेकिन ओशो अपनी अनूठी दृष्टि बरकरार रखते हुए कहते हैं समाधि के द्वार के तीन तत्त्व हैं । ये तीनों जिसने आत्मसात् किए हैं वही उस द्वार पर पहुंच सकता है । और वे तीन तत्व हैं:
(अंधकार, अकेलापन, मृत्यु)
और मजे की बात, ये ही वे तीन तत्व हैं जिनसे आदमी तह जिंदगी बचता रहता है; फलस्वरूप, समाधि से भी वंचित रह जाता है । द्वार से ही बचते फिरे तो महल में कैसे
प्रवेश करेंगे?
मनुष्य अंधकार, अकेलेपन और मृत्यु से क्यों घबड़ाता है, क्योंकि इनमें अहंकार विलीन होने लगता है । प्रकाश जरूरी है अहंकार के खड़े होने के लिए । प्रकाश हो तो ही दूसरे को दिखाया जा सकता है कि हम हैं । अहंकार एक दिखावा है, और दिखावा करने के लिए दूसरे का होना अनिवार्य है । देखने के लिए यदि कोई है ही नहीं तो किसे दिखाओगे इसलिए अकेलापन काटता है, मृत्यु समान लगता है । और हम जिस मृत्यु को जानते हैं वह संपूर्ण समाप्ति प्रतीत होती है । अत: अहंकार उससे भी भागता है । इन सभी तत्वों का सार-निचोड़ एक ही है: अहंकार का मिटना । जैसे ही अहंकार मिटा हम समाधि के द्वार पर उपस्थित हुए।
इस हकीकत को ओशो भांति-भांति के उदाहरणों को देकर, कहानियों में गूंथ कर, मधुर शब्दों में उड़ेल कर कहते है ।छह प्रवचनों के स्तवक में वे श्रोताओं का हाथ पकड़ कर आहिस्ता-आहिस्ता उन्हें अंतर-पथ पर ले चलते है। यह प्रवचनमाला एक तरह की कार्यशाला है । दिन में ओशो विषय का गहरा विश्लेषण करते है और रात को चर्चित विषय का स्वाद देते है; स्वयं सूचनाएं देकर श्रोताओं को ध्यान की अनुभूति देते हैं।
यह कार्यशाला, मेरे लिए ओशो का पहला संस्पर्श थी । उससे पहले ऐसे व्यक्ति को कभी देखा ही नहीं था। पूना के हिंद विजय थिएटर में किसी आम व्याख्यानमाला की भांति उनके प्रवचन होते थे। सफेद लुंगी और ऊपर उतनी ही सफेद चादर ओढ़े ओशो मंच पर आकर बैठते थे । लगता था, न जाने कहां से उड़ कर आया सफेद पंखों वाला परिदा हौले से उतरा है । सभागार के एक कोने में, अपनी विशाल उन्मनी आंखें पल भर को टिका कर एक जादू भरी आवाज गूंजती:
“मेरे प्रिय आत्मन्!”
और सभा मे बैठे हुए सारे आत्मन् अपना आपा भूल कर उन मोहिनी आंखों के शून्य में हब जाते । जाने क्या सम्मोहन था उस व्यक्तित्व में । यह भी पता नहीं था कि यह अद्भुत शख्स कौन है, कहां से आया है । जानने की जरूरत भी नहीं थी । मन, बुद्धि, सब कुछ अपना-अपना कामकाज बंद कर देते और उनके ही हो जाते ।
सुबह के प्रवचन के बाद ओशो निमंत्रण देते : “कब तक दौड़ते रहिएगा” क्या अभी काफी दौड़ नहीं हो गई? समय नहीं आ गया कि हम उसे पहचानें जो दौड़ रहा है?”
“सुबह में बात करूंगा उसके द्वार की । और रात को सिर्फ उनको निमंत्रण है, जो उस द्वार में प्रवेश करने का साहस जुटा पाते हैं।”
इस निमंत्रण को टालना मुश्किल था । दौड़-दौड़ कर थके हुए लोग रात ओशो के साथ फिर जा बैठते । यह निमंत्रण था ध्यान का । सभा में पूरा अंधेरा कर ओशो सम्मोहक स्वर में सुझाव देते “आंख बंद कर लें, शरीर को ढीला छोड़ दें बस अंधकार ही अंधकार है,” ये सारे सुझाव इस पुस्तक में प्रवचनों के साथ संकलित हैं । इन सुझावों के अनुसार कोई सचमुच ध्यान करे तो समाधि की झलक मिल सकती है । यह किसी लेखक की लिखी हुई बौद्धिक पुस्तक नहीं है । यह संवाद है उस मेघ का तप्त धरती से, जो बरसने को आतुर है, अपने हृदय-भार को निर्भार करना चाहता है वह । इन प्रवचनों के शब्द प्रेम से लबालब भरे हैं । उन्हें पीने वाला हृदय चाहिए, बस ।
इस पुस्तक को पढ़ना अनुभूति की यात्रा है । शब्द कुंजियां बन कर अंतर्मन के द्वार खोलने लगते हैं । ओशो समाधि जैसी गंभीर चीज को भी एक सरस काव्य बना देते हैं-बिलकुल आत्मीय ।
“जैसे अंधेरे में कोई अचानक दीये को जला दे, और जहा कुछ भी दिखाई न पड़ता हो वहां सभी कुछ दिखाई पड़ने लगे, ऐसे ही जीवन के अंधकार में समाधि का दीया है । या जैसे कोई मरुस्थल में वर्षो से वर्षा न हुई हो और धरती के प्राण पानी के लिए प्यास से तड़पते हों, और फिर अचानक मेघ घिर जाएं और वर्षा की बूंदें पड़ने लगें, तो जैसा उस मरुस्थल के मन में शांति और आनंद नाच उठे, ऐसा ही जीवन के मरुस्थल मे समाधि की वर्षा है । या जैसे कोई भरा हुआ अचानक जीवित हो जाए और जहा श्वास न चलती हो वहा श्वास चलने लगे, और जहा आंखें न खुलती हो वहा आंखें खुल जाए और जहा जीवन तिरोहित हो गया था वहा वापस उसके पदचाप सुनाई पडने लगे, ऐसा ही मरे हुए जीवन मे समाधि का आगमन है ।
“समाधि से ज्यादा महत्वपूर्ण जीवन में कुछ भी नही है । न तो कोई आनंद मिल सकता है समाधि के बिना, न कोई शांति मिल सकती है, न कोई सत्य मिल सकता है ।”
“समाधि को समझ लेना इसलिए बहुत उपयोगी हे । समझ लेना ही नही-क्योकि समाधि उन कुछ थोडी सी बातो मे से है जिसे समझ लेना काफी नही है-उसमें से होकर गुजरे तो ही उसे समझ भी सकते है ।”
“जैसे कोई नदी के तट पर खडा हो औंर हम उसे कहे कि आओ, तुम्हे तैरना सिखा दे । और वह कहे कि पहले मैं तैरना सीख लू तट पर ही, तभी पानी मे उतरूंगा । पहले मैं समझ लू फिर पानी में उतरूं। तो तर्क उसका गलत न होगा । ठीक ही कहता हूं वह । बिना तैरना जाने कोई पानी में उतरने को राजी भी कैसे हो लेकिन एक और बड़ी कठिनाई है, उसकी कठिनाई तो है ही, सिखाने वाले की भी कठिनाई है, क्योकि बिना पानी में उतरे तैरना सिखाया भी कैसे जाए । तो तैरना सिखाने वाला कहने लगे, उतर आओ पहले । क्योंकि बिना पानी में उतरे तैरना न सीख सकोगे तो वह भी गलत न कहे । और जिसे सीखना है वह कहे, भयभीत हूं मैं, बिना तैरे उतरूंगा नही । पहले सीख लू तब उतर सकता हूं ।
“समाधि की बात भी क्त ऐसी ही है । समाधि मे गए बिना कुछ भी पता नहीं चल सकता है।”
अनुक्रम
1
समाधि के द्वार पर
10
2
एकाकीपन का बोध
28
3
सम्मोहन का उपयोग
40
4
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, असंग्रह
58
5
समाधि के तीन चरण
80
6
मन की मृत्यु ही समाधि है
92
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