अष्टछाप कवि नंददास: Ashtachhap Poet Nandadas

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Item Code: NZD008
Publisher: Publication Division, Ministry Of Information And Broadcasting
Author: सरला चौधरी (Sarla Chaudhary)
Language: Hindi
Edition: 2006
ISBN: 8123011903
Pages: 119
Cover: Hardcover
Other Details 8.5 inch X 5.5 inch
Weight 250 gm
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Book Description

भूमिका

भारतीय साहित्य में अत्यंत प्राचीन समय से भक्ति रसधारा प्रवाहमान है। वैदिक वाङ्मय से उद्भूत यह धारा संस्कृत के परवर्ती पौराणिक ग्रंथों में अधिक गहन, व्यापक एवं गतिमय दिखाई देती है। इतना ही नहीं, तमिल की आलवार परंपरा एवं अपभ्रंश की लोक परंपरा में ही यह जीवन संजीवनी रक्त ऊर्जा के समान संचरित रही। हिंदी साहित्य में तो यह वेगवती निर्झरिणी बनकर विविध रुपिणी सरस सजला सरिताओं के रूप में विभिन्न दिशाओं को अद्यावधि आप्लावित कर रही है । हिंदी कै भक्ति-साहित्य की इस अनंत यात्रा का सर्वाधिक प्रमुख रमणीय प्रस्थान बिंदु है-मध्ययुगीन कृष्ण काव्य। भारत की सांस्कृतिक विरासत को लोकशैली की गेयात्मक रचनाओं के माध्यम से जनजीवन से जीवंत रूप में संपृक्त कर देना इसकी महत्वपूर्ण विशेषता है। हिंदी का समूचा अष्टछाप काव्य इसका प्रत्यक्ष साक्ष्य है। अष्टछाप काव्य हिंदी मध्ययुगीन कृष्ण भक्ति काव्य की आत्मा है। भारतीय दार्शनिक चिंतन को अपने बहुआयामी संस्पर्श से अलौकिक दीप्ति प्रदान करने वाला कृष्ण-तत्व हिंदी कै इस संगीतबद्ध काव्य में रागिनी की भांति मुखरित है जिसकी गंज आज भी भारत के समस्त अंचलों की लोकवाणी में सुनी जा सकती है । एक सुनिश्चित अर्चना-पद्धति की अंगभूत व्यवस्थित परिपाटी के अंतर्गत व्यक्त रसिक भक्त कवियों के उद्गार उनकी व्यष्टिगत अंतरंग अनुभूतियों के द्योतक होकर भी व्यापक स्तर पर समग्र लोकचेतना कै मूर्तिमान प्रतीक है। भारतीय लोकजीवन प्रमुखतया आस्था, श्रद्धा प्रेम और समर्पण की सुदृढ़ आधारशिला पर स्थित है। अष्टछाप काव्य को इसी पुष्ट आधारशिला पर निर्मित भव्य सांस्कृतिक अट्टालिका का प्रतिरूप माना जा सकता है।

अष्टछाप के अंतर्गत समाविष्ट आठों कवियों का विशिष्ट साहित्यिक सांस्कृतिक योगदान निर्विवाद है, तथापि इनमें नंददास का कृतित्व अपनी पृथक पहचान बनाए हुए है। असंख्य शोधकर्त्ता विद्वान एवं समीक्षक साहित्यकार नंददास की भाव-संपदा तथा वाग्विदग्धता का अनुशीलन-परिशीलन करने के पश्चातउनकी काव्य गरिमा का विवेचन कर चुके हैं। उनकी वाणी में ब्रज की लोक-संस्कृति ही नहीं, समूची भारतीय जीवन रसधारा अपने प्रकृत रूप में उपस्थित है जिसके विविध आयामों की सोदाहरण झलक इस लघुकाय पुस्तिका में यथासंभव विषय वस्तुगत परिपूर्णता तथा कलागत सौष्ठव की समग्रता के साथ प्रस्तुत की गई है। अष्टछाप काव्य के प्रवर अध्येता और मीमांसक डॉ. दीनदयाल गुप्त के शब्दों में 'नंददास यौवन' के कवि हैं। उनकी रचना में शृंगार रति की उमंग, रूप-सौंदर्य की उन्मत्तता तथा युगल-रस की सरस धारा प्रवाहित हो रही है। नंददास एक विद्वान व्यक्ति थे। वार्त्ताकार नें भी इनकी विद्वत्ता की प्रशंसा की है, इनकी बहुज्ञता तथा पांडित्य का परिचय इनकी रचनाओं से प्रकट हैं। ये काव्यशात्र के ज्ञाता, संस्कृत भाषा के पंडित तथा सांप्रदायिक सिद्धांत के आचार्य थे। इस बात का प्रमाण इनकी रचनाओं से मिलता हैं। पद लालित्य औंर भाषा-माधुर्य की दृष्टि से तो नंददास (निश्चय ही) प्रथम स्थान के अधिकारी हैं। ''डा. रामकुमार वर्मा के कथनानुसार ''ये भक्ति के साथ कवित्व में भी पारंगत थे। ''इनके शब्द मोती की तरह रेशम पर ढ़लकते हुए चले आतें हैं। चित्रात्मकता इनकी अन्यतम विशेषता है। डा. वर्मा के शब्दों में ही ''यदि तुलसी की कविता भागीरथी-सी और सूर की पदावली यमुना के सदृश हैं तो नंददास की मधुर कविता सरस्वती के समान होकर कविता-त्रिवेणी की पूति करती है।''

ऐसी महान् काव्य-विभूतियों की लोक-संवेदना सें युक्त काव्य-सुषमा से हिंदी के पाठकों को परिचित कराने का जो समायोजन भारत सरकार कें प्रकाशन विभाग ने किया है उसके लिए वह निश्चय ही सभी साहित्य-संस्कृति प्रेमियों के साधुवाद का अधिकारी है। मैं प्रकाशन विभाग की आभारी हूं कि उसकी ओर से नंददास जैसें 'जड़िया' भक्त कवि के व्यक्तित्व और कृतित्व के पुनराकलन के साथ-साथ उसे उनके संक्षिप्त काव्य-संचयन का दायित्व भी सौंपकर इस साहित्य सागर में कुछ गहरे पैठने का अवसर उपलब्ध कराया गया। प्रभु कृपा से जो कुछ मैं उसमें सें प्राप्त कर सकी वह सुधी पाठकों की सेवा में विनम्रतापूवक समर्पित है।

प्रस्तावना

भारतीय साहित्य, समाज और संस्कृति के अजस्र प्रवाह में जो धाराएं समय-समय पर समाहित होकर उत्तरोत्तर गतिमान हैं उनमें हिंदी काव्य की मध्ययुगीन कृष्णभक्ति धारा सर्वाधिक निर्मल, वेगवती और लोक मन को रससिक्त कर देने में समर्थ मानी जा सकती है। उसमें भी 'अष्टछाप' के आठ कृष्णभक्त कवियों का मंडल एक अष्टमुखी दीपस्तंभ की भांति हिंदी काव्य-सागर के बीचोंबीच मार्गबोधक के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इन कृष्ण-प्रेमी कवियों की भक्ति-चेतना मात्र दार्शनिक अवधारणा का भाषिक संस्करण नहीं, अपितु यह भारतीय संस्कृति विशेषतया लोक-संस्कृति की अखंड अविकल्प आत्मा है। इनकी भक्ति चेतना के केंद्रवर्ती तत्व-बिंदु वह सात्विक एवं अंतरीय प्रेमभाव है जिसकी निरभ्र-अकलुष ऊर्जा अन्य सभी मानवीय संवेदनाओं को अपने दिव्य आलोक में समाहित किए हुए है। इनके प्रेम का आलंबन वह नटवर नागर श्याम है जो भक्तों का परम पुरुष, गोपों का स्वजन-सखा, यादवों का प्यारा, नंद-यशोदा का दुलारा, आर्तजनों का सहारा और गोपियों के कन्हैया नाम सें सर्वजन-मोहक सौम्य किंतु विराट व्यक्तित्व का धनी है । उस व्यक्तित्व की अपूर्व-अमित आधा और अद्वितीय रूप-माधुरी ने यदि किसी काल में प्रत्यक्ष युगसुंदरी राधा एवं गोपियों को मुग्ध किया तो उसके गुण-गायन ने परवर्ती युगों में न जानें कितनों को भक्त, साधक और उपासक बना दिया । भक्त कवियों एवं प्रेम-संगीत के गायकों की सुललित वाणी जब उस चुम्बकीय व्यक्तित्व की अभ्यर्थना में मुखरित हुई तो उनके भावाभिभूत अंत:करण से ऐसी रस निझइरिणी प्रवाहित हुई जिसमें कोटि-कोटि जन-मन निमज्जित होकर झूम उठे। ऐसे ही सहृदयों में मध्ययुगीन कृष्ण भक्ति चेतना के संवाहक 'अष्टछापी' कवियों के अंतर्गत भक्तप्रवर नंददास का नाम भी अग्रगण्य है।

भारतीय साहित्य और संस्कृति में 'कृष्ण' एक ऐसी शाश्वत सत्ता के प्रतीक हैं जो मानव-जीवन के हर क्षेत्र में, हर स्तर पर विविध रूपों में अपनी आभा झलकातेमुग्ध औंर प्रभावित करतें हैं । मध्ययुग में विभिन्न ब्रह्मवादी व्याख्याताओं ने लोकमानस में जीवन के प्रति जो विरक्ति या निवृत्तिपरक दृष्टि जगायी उसका बहुत-कुछ परिहार और निवारण संस्कृत और हिंदी के कृष्ण-विषयक काव्य ने सफलतापूर्वक किया । चिरंतन शास्त्रीय दार्शनिक मान्यताओं का विखंडन किए बिना ही कृष्णानुरागी भक्त कवियों ने उनका समाहार जीवन-स्वीकृति के दिव्य आनंदमय प्रवृत्ति-मार्ग में बड़ी सुचारुता और प्रगल्भता से कर दिखाया। ऐसे विभिन्न वैष्णव आचार्यों में वल्लभाचार्य एवं उनके पुत्र गोस्वामी विट्ठलनाथ का स्थान महत्वपूर्ण है। गोस्वामी विट्ठलनाथ ने कृष्ण तत्व के विराट् प्रभामंडल की आधा दैनिक लोकजीवन को आलोकित करने के उद्देश्य सें जिस अष्टछाप की स्थापना की थी वह भक्ति की संजीवनी ऊर्जा का अविराम सृजन करने लगा। अष्टछाप के प्रज्ञ औंर प्रगल्भ आठों कवियों की रागरंजित काव्य माधुरी ने कृष्ण-तत्व कैं विधायक विविध पक्षों का सहज साक्षात्कार सर्वसाधारण को कराकर उनकी भगवद्निष्ठा को आश्चर्यजनक रूप से परिपुष्ट किया। युगल-तत्व, राधा-महिमा, सखी- भाव, लीला-विहार, वृंदावन-सुषमा और मुरली-मोहिनी आदि के बहुरंगी वातायन-दर्पणों के माध्यम से कृष्ण-सत्ता की सर्वजन-मनोहारिणी छवियों का ध्वन्यंकन, शब्दांकन औंर बिम्बांकन जिस सुष्ठुता से अष्टछाप काव्य में हुआ है वह अन्यत्र दुर्लभ है।

लगभग एक शताब्दी से अष्टछाप काव्य का अध्ययन- अवगाहन अनेक स्तरों पर अनेक दृष्टियों से हुआ और हो रहा है । हिंदी-साहित्य के विभिन्न इतिहासों में मध्ययुगीन हिंदी साहित्य का द्विविध काल-विभाजन करके इन्हें क्रमश 'भक्तिकाल' और रीतिकाल' का अभिधान दिए जानें के कारण, इस युग के विपुल काव्य की पर्यवेक्षण सीमा पर्याप्त संकुचित-सी हो गई माना इतिहासकारों नें 'भक्ति और 'रीति' के चौखट, के भीतर रहकर ही पांच-छह सौ वर्षों की इस अपार साहित्य-निधि के अवगाहन की सीमा बांध दी हो परंतु वास्तव में यह 'विराट्' को 'वामन' रूप में परिचित कराने की एक औपचारिक प्रक्रिया मात्र थी इससे उसकी विराटता के विधि रूप अदृष्ट नहीं हो जाते। असंख्य सहृदय साहित्य रसिकों ने उनका प्रत्यक्ष अवलोकन करते हुए अन्य पाठक-वर्ग को भी उससे अवगत कराया । अष्टछाप काव्य इसका अपवाद नहीं । इसकी दार्शनिक पृष्ठभूमि, साहित्यिक पूर्वपीठिका अथवा शास्त्रीयता भी कम महत्वपूर्ण या न्यून ध्यातव्य नहीं, परंतु उसके साथ ही इसके लोकतात्विक स्वरूप और सामाजिक-सांस्कृतिक अवदान को अधिकाधिक उजागर करनें की आवश्यकता सदा बनी रहेगी । इस आवश्कता की पूर्ति के प्रयास कीपरिणति-स्वरूप ही इस अष्टछाप काव्य माला की परिकल्पना साकार हो रही है । बड़ी प्रसन्नता की बात है कि इस महान साहित्यिक-सांस्कृतिक प्रकल्प को भारत सरकार के प्रकाशन विभाग ने अपने हाथ में लेकर इसके लक्ष्य-संधान का कार्य पर्याप्त सहज बना दिया है ।

अष्टछाप काव्य यदि हिंदी साहित्य का अष्टधातु आभूषण है तो नंददास की रचना उसमें जड़ित आभामयी मणि है जो अनायास अपनी ओर आकृष्ट एवं मुग्ध कर और कवि 'जड़िया', नंददास जड़िया', की कहावत सार्थक करती है । उत्तर मध्यकाल के संगम- स्थल पर स्थित नंददास जैसे समर्थ कवि में शास्त्रीय समालोचकों की दृष्टि से भले ही 'भक्ति' और 'रीति' तत्वों का अद्भुत सामंजस्य प्रतीत होता हो, परंतु हमारी दृष्टि में यह अखंड और अविभक्त भारतीय लोकचेतना की ही अविराम अभिव्यंजना धारा है जो कथित ऐतिहासिक सीमाओं के आर-पार समानत : सर्वजन हृदयों को आप्लाविप्त करन में प्रवृत्त है । यह सुखद संयोग ही है कि प्रस्तुत पुस्तक की संपादिका सरला चौधरी ने इसी अवधारणा को समक्ष रखकर, काव्यगत परिप्रेक्ष्य में नंददास के व्यक्तित्व और कृतित्व का सम्यक् मूल्यांकन प्रस्तुत किया है। आशा है, सहृदय अध्येता उनके द्वारा संकलित-संपादित सामग्री के अनुशीलन से अभीष्ट संतोष का अनुभव करेंगे ।

Contents

 

1 जीवन ओर कृतित्व 1
2 नंददास के काव्य का वैचारिक धरातल 10
3 दार्शनिक विचार 14
4 पुष्टिमार्गीय अवधारणा का निर्वाह 20
5 सांस्कृतिक चेतना 29
6 भाषा शिल्प 39
काव्य संचयन    
7 रास पंचाध्यायी 53
8 श्रीकृष्ण-सिद्धात पंचाध्यायी 67
9 भंवरगीत 71
10 स्याम सगाई 83
11 सुदामा चरित 89

 

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