पुस्तक के विषय में
यह नाटक इस अर्थ से समकालीन नाटक है कि यह किसी भी समय के अन्याय, अनाचार, भ्रष्टाचार विवेक-शून्यता और मनमानेपन पर रोशनी डालता है। इस प्रहसन में व्यंग्य के माध्यम से जो कुछ भी, ने कहा गया है, उतना ही अधिक कहने की गुंजाइश भी है। रंगकर्मी और कुशल निर्देशक इस नाटक में बहुत कुछ समावेश कर सकने की क्षमता का इस्तेमाल करके अपने समय की समस्याओं को रेखांकित करते हुए उसका उत्तर खोज सकते हैं।
''पर हिन्दी साहित्य अपने पुराने रास्ते पर ही पड़ा था । भारतेन्दु ने उस साहित्य को दूसरी ओर मोड़कर हमारे जीवन के साथ फिर से लगा दिया। इस प्रकार हमारे जीवन और साहित्य वो बीच जो विच्छेदन पड़ रहा था उसे उन्होंने दूर किया हमारे साहित्य को नये-नये विषयों की ओर प्रवृत करने वाले हरिश्चन्द्र ही हुए ।
भूमिका
भारतेन्दु आधुनिक हिन्दी साहित्य के इतिहास में एक नये युग के निर्माता के रूप मे याद किये जाते हैं 'भारतेन्दु युग' का अर्थ है-उन्नीसवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध १८५० मे भारतेन्दु का जन्म हुआ- एक ऐसे सम्पन्न परिवार मैं, जिनमें राजभक्ति की अपनी परम्परा थी १८६८ मे भारतेंदु ने 'कवि वचन सुधा का प्रकाशन आरम्भ किया फिर नाम और रूप बदलकर कुछ अन्य पत्रिकाएं प्रकाशित की हरिश्चन्द्र मैगजीन, हरिश्चन्द्र चंद्रिका और नवोदिता हरिश्चंद्र चंन्द्रिका यह सिलसिला जीवन भर चला आधुनिक युग के निर्माण मे इन पत्रिकाओ की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण थी १८७३ मे भारतेन्दु ने घोषणा की-'हिन्दी नई चाल में ढली। ' इस 'नई चाल' में भाषायी विशिष्टता के साथ नयी विचारधारा, नयी सामाजिक चेतना भी निहित थी २३ मार्च १८७४ की 'कवि वचनसुधा' मे भारतेन्दु का प्रतिज्ञा पत्र छपा-''हम लोग आज के दिन से कोई विलायती कपड़ा न पहिनेंगे ।'' इस घोषणा का आगे के तीव्रतर स्वाधीनता संघर्ष से नया सम्बन्ध है, बताने की जरूरत नहीं महत्वपूर्ण तथ्य यह है भारतेन्दु के जन्म से पहले भी ऐसे संगठन रूप ले चुके थे जिनका उद्देश्य था राजनीतिक-सामाजिक जागरण भारतेन्दु ने इस बीच निबन्ध, नाटक उपन्यास लिखे, कविताएँ लिखी, समसामयिक विषयों पर टिप्पणियाँ लिखीं, अनुवाद किये, अपना एक लेखक मण्डल, फिर लगभग अपना स्वतन्त्र रंगमण्डल बनाया यात्राएं की, नाटक खेले, जनता के कष्टा की गाया शासको तक पहुँचाने की कोशिश की, राजभक्ति के परम्परा- निर्वाह के बावजूद साम्राज्यवादी शोषण की रीतिनीति समझी, अंग्रेजी भाषा की अधीनता के विरुद्ध जनता को सचेत करते हुए लिखा-'निज भाषा उन्नति अहे सब उन्नति को मूल' 'सब उन्नति' भारतेन्दु की मुख्य चिन्ता थे। जिसमे नवजागरण का आरम्भिक स्वर बुला-मिला था उसके अभाव मे स्वाधीनता के लिए सघर्ष की कल्पना कठिन थी भारतेन्दु की विचारधारा और सामाजिक दृष्टि का प्रतिनिधि नाटक 'अंधेर नगरी' १८८१ मे लिखा गया १८८५ में भारतेन्दु की मृत्यु हुई इस युग-निर्माता लेखक को कुल पैंतीस वर्ष का जीवन मिला इसी अवधि मे भारतेंदु को अपने समय के कई द्वन्द्वों से गुजरना पडा- राजभक्ति और देशभक्ति का द्वन्द्व, वैष्णवता और आधुनिक प्रगतिशील विचारधारा का द्वद्व, दरबारी संस्कृति और जन-संस्कृति का द्वन्द्व इस युग के महत्व को स्वीकार करते हुए प्रसिद्ध आलोचक रामविलास शर्मा का कहना है, ''वास्तव में ऐसा सजीव और चेतना युग हिन्दी में एक ही बार आया है ।''
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