प्राक्कथन
शिवस्मरणमू
आद्यन्तमङ्गलमजातसमानभावमार्य तदीशमजरामरामात्मदेवमू ।
पञ्चानन प्रबलपञ्चविनोदशीलं सम्भावये मनसि शङ्करमम्बिकेशमू ।।
प्राचीन भारत के दक्षिणीक्षेत्र (अधुना-तमिलनाडु प्रान्त) में चोल मण्डल नाम से विख्यात राज्य था । उसमें भी तञ्जापुरम् (तज्ञोर) में श्री शरभजी महाराज द्वारा प्रतिष्ठापित सरस्वती महालय पन्यागार से प्रकाशित आयुवेर्दायरसशास्त्र के सुन्दरतम गन्ध ताडपत्र पर संस्कृत भाषा में लिखित यन्त्र को प्रकाशनार्थ सरस्वती भवन ग्रन्धागार को अधिकृत किया गया था । अत: यथामति इस पन्य को संशोधन कर प्रकाशित करने का निर्णय लिया गया था । पहले इसे तमिल भाषा में प्रकाशित किया गया था । यह पन्य रसतन्त्र के ग्रन्यों में अग्रिम- गणना में माना जाने लगा । रसार्णवन् रसहृदयतन्त्रन् रसरत्नाकर आदि प्रसिद्ध ग्रन्यों का अनुसरण करते हुए तथा विषयों का प्रतिपादन उन पूर्व रस ग्रन्यों से भी अधिक सरल एवं क्रमबद्ध शैली से अत्यन्त विस्तृत रूप में लिखा गया है । एतदर्थ इस पन्य को विशुद्धबर्थ तीन-मातृकाओं का उपयोग किया गया था ।
१ पहली मातृका (मूत्नप्रति) तञ्जापुरर्का सरस्वती भवन ग्रन्धागार सै ताडपत्र पर लिखित पत्रा ।
२ दूसरी मातृकामैसूर राष्ट्रीय प्राच्य ग्रन्धसंग्रहालयंसे उपलब्ध तैलगुलिपि में जिसे देवनागरी(हिन्दी) लिपि में अनुवाद कर भेजा गया था, जो बहुत ही अशुद्ध थी ।
३ तीसरी मातृका- जिसे निखिल भारतीय आयुर्वेद महामण्डल पत्रिका में १५ वर्ष पूर्व ( १९ ३६- ३७ ई०) प्रकाशित हुआ था ।
त्रिशिरपुर (त्रिपुरापल्ला) के आत्रेय आदुर्वेद शाला के अध्यक्ष आयुर्वेदाचार्य श्री वा०बा०नटराज शास्त्री न उन तनिएां मातृकाओं को संशोधन कर इस आनन्दकन्द ग्रन्थ को १९५२ ई० में तझौर सरस्वती ग्रन्धागार तमिलनाडु से प्रकाशित किया गया था । जो पिछले ३० वर्षों से बाजार में यह ग्रन्ध अनुपलब्ध है । इसके पूर्व आनन्दकन्द का प्रथम प्रकाशन त्रिवेन्द्रमू संस्कृत-सीरिज के द्वारा SAMBASHIVA SHASTRI के द्वारा सम्पादन कर ११२८ ई० में- Pulished under the AUTHORITY of the Government of Her Highness Maharani REGENT of TRAVANCORE के द्वारा प्रकाशित हुआ था, जो श्री धूतपापेश्वर लि० पनवेल के पुस्तकालय में देखने को मिला था । किन्तु C.C.R.I. द्वारा आयुर्वेदीय रसशास्त्र के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में इस ग्रन्थ को निर्धारित किया गया है । साथ ही यह यन्त्र अनुपलब्ध होने कै कारण छात्रों एवं अध्यापकों के लिए अप्राप्य था, जिसके कारण उन्हें अधिक कठिनाई हो रही थी ।
अत: मैंने इस ग्रन्थ का हिन्दी भाषा में अनुवाद कर आप विद्वानों के सम्मुख उपस्थित करने का दुःसाहसिक प्रयास किया है । केवल भाषा के शान से किसी ग्रन्थ का अनुवाद समीर्चान नहीं प्रतीत हाता है, जबतक पन्य में वर्णित विषयों का सम्यg( शान नहीं हो । इसी सन्दर्भ में मैंने दुःसाहस शब्द का प्रयोग किया है । मैं रसशास्त्र का विद्यार्थी अवश्य हूँ किन्तु केवल संस्कृत शान से ऐसे टिव्य विषयों के रहस्य प्रकट नहीं होतै हैं । यह परमश्रेय (मोक्ष) प्राप्ति का एकमात्र साधन ग्रन्थ है, जिसे दिव्य शरीर बना करदेहवाद को प्रदान करने वाला एक मात्र क्रियात्मक शास्त्र है । जिसने पारद का मुखीकरण, चारण, जारण, गर्भदुति, बाह्यदुति, क्रामण-वेध न कभी किया, न कभी देखा तथा इस सम्बन्ध में किसी प्रबुद्ध सुशात गुरुओं द्वारा न कभी सुना हो, ऐसे में उसे रसशास्त्र के सम्बन्ध में किसी अध्यापक के लिए दुःसाहस ही कहा जायगा ।
अध्यापयन्ति यदि दर्शयितुं क्षमन्ते सूतेन्द्रकर्म गुरवो गुरवस्त एव ।
शिष्यास्तदेव रचयन्ति पुरों गुरूणां शेषाःपुनस्तदुभयाभिनय भजन्ते ।।
आनन्दकन्द के रचयिता के सम्बन्ध में कुछ कहने का स्पष्ट रूप से कोई आधार दिखाई नहीं देता है । चूकि यह ग्रन्थ भैरवी तथा भैरव के संवाद रूप मैं प्रस्तुत किया गया है । इसी आधार पर भेंरवोतोंऽयं ग्रन्थः कहा जाता है । जनुश्रुति यह भी है कि इस ग्रन्थ के रचयिता श्रीमन्थानभैरव जी हैं, यह भी सम्भव है । श्रीमन्थानभेरव सिद्ध योगी थे । आनन्दकन्द के रचयिता अवश्य ही कोई दिव्य पुरुष है ।
इस ग्रन्थ के अध्ययन से यह शात होता है कि इस गन्ध की रचना श्रीशैलपर्वत पर हुई है, या वह व्यक्ति जो श्री शैल पर्वत कें चप्पे-चप्पे का विशेष ज्ञान रखने वाला है । वहाँ पर हर क्षेत्र में उगने ( १) वाली वनस्पतिओं का विशेष गाता होगा या उक्त पर्वत पर हर क्षेत्र में तरह-तरह ही सिद्धियाँ जो उपलब्ध है, उसका भी विशेषज्ञाता प्रतीत होता है ।
इस १२ वें उल्लास में सम्पूर्ण श्री पर्वत की सिद्धियों की प्राप्ति के लिए अनेक कारणों का उल्लेख किया है ।
श्रीशैलपर्वत पर श्रमिल्लिकार्जुन नाम सै प्रसिद्ध भगवान् शङ्कर का दिव्य ज्योतिलिङ्ग दर्शनीय, स्पर्शनीय तथा पूजनीय हैं । उनके वाम पार्श्व में घण्टा सिद्धेश्वर शिव का मन्दिर है । कृष्ण चतुर्दशी को अतन्द्रित जागरूक होकर अजस्र धारा सै शिव को स्नान कराते रहें, तथा १२ घण्टों तक सिद्धेश्वर महादेव का घण्टा बजाते रहें । इस कार्य से प्रसन्न होकर भगवान् शिव उक्त भक्त कोखेगति(आकाश में उडने की शक्ति) प्रदान करते हैं ।
आगे आचार्यश्री ने कहा है कि घण्टा सिद्धेश्वर के दक्षिण भाग में घुटने पर्यन्त जमीन में गढ्ढा खोदे, तो वहाँ पर गोरोचन जैसी रक्तपीताभ मिट्टी मिलती है । उस मिट्टी को १२ पा ० लेकर गोदूध में घोलें और ७ दिनों तक उसे इसी प्रमाण में पिलावें तौ व्यक्ति साक्षात् अमर हौ जाता है ।
गिरिराज मल्लिकार्जुन के सामने एक गजाकार शिला है । उस गजाकार महाशिला से रात-दिन दिव्य सुगन्ध सै युक्त गुग्गुलु का स्राव होता रहता है । उस स्रवित गुग्गुलु को पलाशवृक्ष के लकड़ी की दर्वी में ग्रहण करें तथा उसमें शुद्ध गन्धक चूर्ण समभाग मिलाकर प्रतिदिन १२ ग्रा ० महीन तक सेवन करने से सदा प्रसन्न रहने वाला वह व्यक्ति युवा होकर जब तक आकाश में चन्द्र-तारे है तब तक जीवित रहता है । (आ. अमृ. १२ - १५ - १७) उस श्रीशैल पर्वत पर त्रिपुरान्तकदेव के उत्तरभाग में उत्तम कोकिलाबिल है । जगत्प्रकाशार्थ पञ्चकर्म द्वारा अपने शरीर को शुद्ध कर साधक व्यक्ति उस बिल (छिद्र) में प्रवेश करें । १० धनुष प्रमाण (४ हाथ का १ धनुष होता है) अत: ४० हाथ दूर तक जाने पर कोयले की तरह काले पत्थर मिलते हैं । इसे ग्रहण करें । उस पत्थर पर तिल डालने से तिल फूटकर लाज बन जाता है । इस सफल परीक्षा के बाद उस पत्थर को परस्पर घिस कर गोदूध में डालने से दूध काला हो जाता है । उस दूध को १ महीना तक पीने से व्यक्ति का शरीर दिव्य बन जाता है । वली- पलित से रहित होकर ब्रह्मा के तीन दिनों (हजारों वर्ष) तक जीवित रहता है । वह व्यक्ति वायु के तरह वेगवान् तथा पृथ्वी में छिद्र देखता है |
श्रीशैल पर्वत के पूर्वद्वार पर त्रिपुरान्तकदेव का मन्दिर है । उस मन्दिर के उत्तर में इमली का एक वक्ष है । उस वृक्ष के मूल में श्री भैरवजी की प्रतिमा है । वहाँ की जमीन में ( ६ फीट) एक मनुष्य प्रमाण; गडुा खाद । नाचे नालवर्ण का तप्त जल कुण्ड मिलता है । वह कुण्ड दिव्य सिद्धि देने वाला है । उम इमली के पत्रों को तोड़कर कपड़ा में बाँधकर उस तपा कुण्ड में डालें । कुछ देर में निकालने के बाद सारे पत्र मछलिओं में परिणत हो जाते हैं । उसी इमली वृक्ष की लकड़ी से उन मछलिओ को भूने तथा द्वी मछलिओं के शिर-पुच्छ और काँटो को छोड्कर साधक खा जाय । क्षणभर में वह साधक वेहाश (मूर्च्छित) हो जाता है, किन्तु क्षणभर में उसकी मूर्च्छा दूर हो जाती है । वह पृथिवी मैं छिद्रनिधि (खजाना) दर्शन करता है औंर दिव्य शरीर प्राप्त कर हजारों वर्षों तक जीवित रहता है ।
त्रिपुरान्तकदेव के पश्चिम भाग में दोगब्यूति४ कोश की दूरी पर मणिपल्ली नाम का एक गाँव है । वहाँ पर कोई पर्वत है । उसके आगे -एक मार्ग (रास्ता) जाता है । वहाँ से पूरब की ओर १० घनुष (४० हाथ) दक्षिणामुख चलने पर आम्राकार प्रज्ज्वलित पत्थर मिलते हैं । उस आम्राकार पत्थर को कपड़े में बाँधे तो कपड़ा लाल हो जाता है । इस कपड़े में बंधे पत्थर को गोदूध में डालने से दूध लाल हो जाता है । इस दूध को प्रतिदिन ७ दिनों तक पीने से साधक को सिद्धियाँ मिल जाती है । उसका शरीर वज जैसा कठिन ., बलवान् तथा कल्प पर्यन्त जीवित रहने वाला हो जाता है ।
इस ग्रन्थ के अमृतकिरण १२ उल्लास में पग-पग पर सिद्धियाँ प्रदान करने वाले अनेक पत्थर, मिएट्टइा । वृक्ष, कन्द की वात कही गई है । इस पर्वत माला में अनेक शिव मन्दिर तथा शिवलिङ्गों के दर्शन पूजन से अनेक प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त होने का वर्णन इस पुस्तक में उपलब्ध है । इस पर्वत पर त्रिपुरान्तकदेव के १ योजन ( ३ कोश) की दूरी पर स्वर्गपुरीनाथदेव हैं उसके आगे घुटने पर्यन्त जमीन खादने पर सर्पफणाकार पाषाण मिलता है । वह भी सिद्धि देने वाला है । (अमृती. १२/३१/४०) वहाँ पर एक हस्तिशिला का वर्णन है, उस हस्तिशिला पर तृण डालकर अग्नि प्रज्जलित करने से सभी तृण स्वर्ण हो जाते हैं ।
इसी तरह की बातमोहिलीयक्षिणी से प्राप्त सिद्धियों का वर्णन मिलता है ।
अनेक नन्दन वनों यथा-कदली नन्दनवन, बिल्वनन्दनवन, दाडिमनन्दन आदि का वर्णन मिलता है, जिसमें अनेक सिद्धियाँ मिलती है । उन वनों के फलों को खाने से अनेक प्रकार की सिद्धियाँ मिलती हैं ।
सातफणों वाला महाबलवान् नाग द्वारा प्राप्त सिद्धियों का वर्णन मिलता है ।
कदम्बेश्वर देवस्थित कदम्बवृक्ष से प्राप्त सिद्धि का वर्णन है ।
छाया-छत्र भूगर्भ कूप में सूखे बाँस डालने से तुरन्त ताजा पत्र युक्त हो जाता है, ऐसी सिद्धियाँ मिलती है । आचार्य श्री ने बड़ी युक्ति से विषय को गोपनीय बनाने का भरपूर प्रयत्न किया है । वृक्षों को लता तथा लताओं को गुल्म आदि में वर्णन कर पाठकों को प्रगित करने का प्रयास भी युक्ति पूर्वक किया गया है ।
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