मेरी अब तक की प्रकाशित सम्पूर्ण कहानियाँ तीन खण्डों में प्रकाशित हो रही हैं, पहला खण्ड 'अन्धकूप', दूसरा 'एक यात्रा सतह के नीचे' और तीसरा 'अमृता' । वस्तुतः मेरी अधिकांश कहानियाँ ग्राम जीवन की तमाम विरूपता, गरीबी और जहालत को समेटे हुए हैं। ऐसा नहीं कि आज का ग्राम जीवन सिर्फ अन्धकूप की ही संज्ञा पा सकता है, उसमें अब भी वैसा बहुत कुछ है जो जीवन में आलोक बिन्दु का कार्य कर सकता है। मेरी कहानियों पर अब तक बहुत कुछ लिखा गया है; पर प्रायः आंचलिक कहकर पिण्ड छुड़ाने की कोशिश की जाती रही है। प्रेमचन्द के बाद इतने विस्तृत और यथार्थ फलक पर पहली बार ग्राम जीवन को देखने की चुनौती स्वीकार करने के इस प्रयत्न को उसके सही परिप्रेक्ष्य में वही देख सकता है जो आज के सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक अन्तर्विरोधों को देखने की सही दृष्टि रखता है।
मेरे पाँच दशक के इस साहित्यिक प्रयास को किसी वाद का चश्मा लगाकर देखना समीक्षा के साथ बेईमानी होगी। इनमें से कोई भी कहानी ऐसी नहीं है जो ग्राम जीवन की बृहत्तर कशमकश और जूझते हुए किसान- मजदूरों के तेवर से जुड़ी हुई न हो। मैं इन संकलनों के प्रकाशन के अवसर पर अपने सभी पाठकों के स्नेह सौजन्य को याद करता हूँ जो इस दुहरी लड़ाई में लेखक के साथ सहानुभूति और सक्रिय साझेदारी का बोध जगाये रहे। वस्तुतः उनकी ही माँग का परिणाम है कि अब तक बिखरी हुई सारी कहानियाँ जो पुनर्मुद्रित न हो पाने के कारण पाठकों, शोध-कर्ताओं और समीक्षकों के लिए अप्राप्य बनी रहीं, वे अब एक साथ तीन खण्डों में आपके सामने आ रही हैं।
शिवप्रसाद सिंह: 19 अगस्त, 1928 को जलालपुर, जमानिया, वनारस में पैदा हुए शिवप्रसाद सिंह ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से 1953 में हिन्दी में एम. ए. किया। 1957 में पी-एच. डी. करने के बाद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में ही प्राध्यापक नियुक्त हुए। शिवप्रसाद सिंह प्रख्यात शिक्षाविद् तो हैं ही, साहित्य के भी शिखर पुरुष हैं। 'नयी कहानी' आन्दोलन के स्तम्भ शिवप्रसाद जी प्राचीन और समकालीन साहित्य से गहरे सम्पर्कित हैं।कुछ समालोचक उनकी कथा-रचना 'दादी माँ' को पहली 'नयी कहानी' मानते हैं।
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