भाषाओं का क्रमिक विकास उनके कोश पंधों पर निर्भर करता है। जो भाषा जितनी प्रचलित होगी, जितनी प्राचीन होगी, जितनी तीव्रगति से सभ्यता के शिखर पर पहुंची हुर्द होगी, तथा अन्य देशों के साथ, अन्य भाषाओं के साथ जिस भाषा का संपर्क मैत्रीपूर्ण रहा होगा, उस भाषा का कोश उतना ही भरा-पूरा एवं समृद्ध होगा। जिस भाषा में जितने अधिक कोश प्राप्त होते हैं. वह उतनी ही सजीव मानी जाती है। इसी कारण भारतीय विद्वानों की अभिरुचि शब्दकोश निर्माण की ओर रही है। उन्होंने तो यहाँ तक कहा है कि-
अवैयाकरणस्तवन्धः बधिर कोषः विवर्जितः।"
अर्थात् व्याकरण के शान से रहित व्यक्ति अन्धा (अन्धे के समान) तथा शब्दकोश के ज्ञान से रहित व्यक्ति बहरा (बहरे के समान) होता है। अतः स्पष्ट है कि साहित्य के गहन वन में प्रविष्ट होने के लिए कोश रूपी पथ प्रदर्शक की नितांत आवश्यकता अपरिहार्य है। अमरकोश संस्कृत भाषा का ऐसा ही कोरा है जो अत्यंत महत्त्वपूर्ण होने के कारण कोश परंपरा में मूर्द्धन्य स्थान रखता है।
अमरकोश का मूल नाम नामलिंगानुशासन है। इसका प्रचलित नाम इस ग्रंथ के संकलनकर्ता अमरसिंह के नाम पर अमरकोश पड़ गया। अमरकोश की शब्द वैज्ञानिकता ही नहीं अपितु उसका विपुल शब्द भंडार उसके कोशकार की विद्वता का परिचय देता है। अतः यह कोश संस्कृत के विद्यार्थी के साथ ही इतिहास एवं समाज विज्ञान के विद्यार्थी के लिए भी समकालीन सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन की रूप रेखा के पुनर्निर्माण में सहायक है। यद्यपि कोश में संस्कृति' एवं 'सभ्यता' दोनों ही शब्द अभिहीत नहीं है, तथापि इनका मौलिक स्वरूप कोश में बिखरा पड़ा है। सभ्यता और संस्कृति दोनों प्रायः साथ-साथ प्रयुक्त होते है। फिर भी इनमें तात्त्विक भेद है। स्थूल और सूक्ष्म में जितना अंतर है, उतना ही अंतर सभ्यता और संस्कृति में है। सभ्यता, बाह्य व्यवहार का प्रतीक है जबकि, संस्कृति आंतरिक विचारों एवं अनुभूतियों का प्रतीक है। सभ्यता के अंतर्गत आहार, व्यवहार, आचार, वेश- भूषा, वस्त-अलंकार, रहन-सहन आदि का अंतर्भाव है, जबकि संस्कृति में अध्ययन, मनन, चिंतन विवेक, सत्य, परोपकार, धैर्य, ज्ञान, आत्मदर्शन, आध्यात्मिक विचार आदि सूक्ष्म तत्वों का सन्निवेश भी है। सूक्ष्म दृष्टि से इन दोनों में अंतर होते हुए भी इनमें अन्योन्याश्रयिता का संबंध बराबर रहता है। सभ्यता और संस्कृति एक दूसरे के पूरक हैं। वर्तमान संस्कृति का जो स्वरूप दृष्टिगोचर हो रहा है, उसमें सभ्यता के उपादान भी समाहित हैं। इतना ही नहीं, अपितु समग्र जीवन के क्रियाकलाप, आदर्श, आचार-विचार आदि का समाहार संस्कृति कहलाता है। इसीलिए वर्तमान संस्कृति का जो स्वरूप संप्रति समझा जाता है.
उसमें नागरिकता, राजनीति, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, धर्मशास्त्र, दर्शन शास्त्र, वाणिज्य, शिल्पकला आदि का अंतर्भाव रहता है। संस्कृति का यही विराट अर्थ लेकर अमरकोश में वर्णित भारतीय संस्कृति के स्वरूप के विवेचन का प्रयास मैने अपने शोध में किया है।
प्रस्तुत पुस्तक उसी शोध का परिष्कृत रूप है। यह एक सामान्य समझ है कि समाज में प्रचलित शब्द उस काल के शब्द कोष में समाहित किये जाते हैं। जेसा आजकल भी देखा जाता है कि ऑक्सफ़ोर्ड डिक्शनरी में भी हर वर्ष नये प्रचलित शब्दों का समायोजन किया जाता है। इन शब्दों के माध्यम से हम उस कात विशेष के समाज का अध्ययन एवं चित्रण कर सकते है। यही इस शोध की मूल भावना है।
इस पुस्तक सर्वप्रथम अमरसिंह के स्थितिकाल संबंधी विभिन्न अभिमतों के साथ ही अमरकोश की रचना प्रक्रिया एवं उसके विभिन्न सोपनों का अध्ययन किया गया है। तत्पश्चात् अमरकोश में उल्लिखित राजनैतिक एवं भौगोलिक शब्दावली का विवेचन किया गया है। इसमें अमरसिंह के ज्ञान में होने वाले विभिन्न स्थानों के विषय में भी जानाकारी प्राप्त होती है। तदन्तर समकालीन सामाजिक व्यवस्था, आर्थिक जीवन एवं क्रियाकलापों, धर्मिक मान्यताओं एवं दार्शनिक विचारों, कला-कौशल एवं शिक्षा तथा साहित्य के अवलोकन का प्रयास किया गया है। अमरकोश के विपुल शब्दभेडार के सम्यक् विवेचन हेतु अमरकोश की शब्द संकलन प्रक्रिया का अध्ययन परिशिष्ट में दिया गया है। अमरकोश का शब्द संसार निश्चय ही विभिन्न तत्कालीन स्रोतों से ग्रहीत है, तथापि वह आगामी काल में स्वयं सोत बन गया। इस स्थिति को दर्शाने हेतु अमरकोश एवं अग्निपुराण में आदान-प्रदान की प्रक्रिया का विवेचन दूसरे परिशिष्ट में किया गया है।
जहां तक सोतों के चयन का प्रश्न है, वर्तमान अध्ययन मूलतः साहित्यिक सोतों पर आधारित है जिसमें प्राथमिक एवं द्वितीयक स्रोतों का उपयोग आवश्यकतानुसार किया गया है। तुलनात्मक अध्ययन अथवा तथ्यों के विश्लेषण हेतु कदाचित् पुरातात्विक एवं मुद्राशास्त्रीय स्रोतों को भी सम्मिलित कर लिया गया है। तथ्यों का निरूपण विषयक्रमानुसार वर्णनात्मक शैली में किया गया है। आवश्यकता होने पर तथ्यों का विश्लेषण भी किया गया है। संदर्भों का निरूपण क्लॉसिकल विधि' से किया गया है और प्रयास किया गया है कि अधिकांश तथ्य मूल पाठ में आ जाएं। अपरिहार्य होने पर ही पाद टिप्पणियों का सहारा लिया गया है।
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