पुस्तक के विषय में
जिसमें विपर्यय का आच्छादन नहीं, जिस प्रज्ञालोक में समस्त पदार्थ समूह स्फुटरूपेण प्रतिभासित होते हैं, इस ऋतंभरा प्रज्ञा में ही वास्तविक तत्त्व दर्शन सम्भव है। यह तत्त्वदर्शन वास्तव में प्रज्ञा का विकास है। प्रज्ञा अपनी विकसित स्थिति में करुणा से अभिन्न हो जाती है। शुद्ध प्रज्ञा के विकास द्वारा प्राणिमात्र के दुःख से हृदय विगलित हो उठता है । शुद्ध प्रज्ञा क्रमविकास द्वारा धर्मावलम्बन करुणा का रूप ग्रहण करती है । इसमें किसी के दुःख दर्शन द्वारा करुणा का उद्रेक नहीं होता। अपितु जगत् का अनित्यत्व ही करुणा का विकास करता है। तत्पश्चात् प्रज्ञा पारमिता का उदय होने पर दुःख, अनित्यत्व आदि उद्दीपक कर्म की भी आवश्यकता नहीं होती । जो सर्वत्र कुशलमूल का दर्शन करते हैं, उनमें स्वत: महाकरुणा का श्रोत उमड़ उठता है। इस स्थिति में अधिकारी-अनधिकारी, साधक- असाधक, सुकृति-दुष्कृति, प्रवृति भेद का दर्शन नहीं रहता। तब प्राणिमात्र की मंगल कामना अहैतुक रूप से हृदय की गहराई से उठती है। वास्तव में यही यथार्थ मनुष्यत्व है।
वेदों में, पौराणिक आख्यानों में, विश्वविश्रुत संत, मनीषी, तत्त्वदर्शी एवं भावभक्तिमार्गी भक्तों की कृतियों में, सर्वत्र समभाव से प्राणिमात्र की मंगल कामना की अन्तर्निहित गुंजन सी अनुभूत होती है। विभिन्न पंथ, दार्शनिक विचारधारा, मतमतान्तर, धर्म इस सम्बन्ध में एकमत हैं। परमेश्वर को करुणावरुणालय, कृपासिन्धु आदि संज्ञाओं से सम्बोधित किया गया है । जो जितना पर दुःखकातर होगा, जिसका हृदय क्षुद्र 'स्व' का सीमोल्लंघन कर समष्टि 'स्व' के लिये जितना अधिक समर्पित हे, उसमें उसी मात्रा में मनुष्यत्व में देवत्व का प्रकाश है। अथवा देवगण भी इसी कारण मनुष्यत्व की प्राप्ति के लिये लालायित हैं, यह भी कहा जा सकता है।
मनुष्यत्व की प्राप्ति के लिये तत्वदर्शन की महनीय उपयोगिता सर्वविदित है। विस्तारार्थक तन् धातु से तत् शब्द निष्पन्न है। जो वितत है, विस्तीर्ण है वही तत्त्व है। श्रुति ने सर्वकार्य कारण, स्वयं अकारण परमसत्ता को तत् शब्द द्वारा इंगित किया है । प्रत्यक्ष देदीप्यमान नामरूपात्मक जगत् की उपलब्धि से पूर्व नामरूपविवर्जित सर्वव्यापी परब्रह्म थे इस समय भी वे तद्रूप विद्यमान हैं। इनका सम्यक् दर्शन ही तत्वदर्शन है (पंचदशी) । जिन्होंने तत्वदर्शन किया है वे ही आफ पुरुष हैं। न्यायभाष्यकार वात्स्यान के मतानुसार जो धर्म या पदार्थ का साक्षात्कार करते हैं, उसका अवधारण सुदृढुप्रमाण द्वारा करते हैं, जो यथादृष्ट पदार्थ ख्यापनेच्छावशत: यथादृष्ट यथार्थ तत्व को उपदेश द्वारा बताने की इच्छा रखते हैं ऐसे वाक्प्रयोग कृतयल, उपदेश सामर्थयुक्त पुरुष 'आप्त' हैं ।
किसी भी पदार्थ का तत्व स्थूल प्रत्यक्ष द्वारा अवधारित नहीं होता। पदार्थ मात्र का स्वरूप स्थूलप्रत्यक्ष का विषय नहीं। कार्य स्थूल प्रत्यक्ष है। कार्य की कारणानुत्संधित्सा ही
सूक्ष्म प्रत्यक्ष है। यही यथार्थ दर्शन है। विद्वान जानविच कहते हैं ''कार्य का कारणानुसंधान दर्शनशास्त्र का उद्देश्य है। कार्य का कारणानुसंधान करते-करते परम कारण को पाना होगा तभी अनुत्संधित्सा विनिवृत्त होगी। ''अत: जो कारणानुक-धान करने में समर्थ हैं वे ही दार्शनिक हैं।
'अखण्ड महायोग' स्वनामधन्य महातंत्रयोगी महामहोपाध्याय पं० गोपीनाथ जी कविराज की महाकरुणा का अजल निर्झर है। यह है उनके मनुष्यत्व की सुगन्धित बयार। अथवा यही है उनकी प्रकृत् दार्शनिक वृत्ति का कारणानुसन्धान रूपी तत्त्वदर्शन। इससे ध्वनित होता है वह आप्तोपदेश-जो तत्त्वदर्शी की प्रोज्ज्वल प्रज्ञा में समुद्भासित होकर अखण्ड महायोग के रूप में जन-जन का गन्तव्य पथ अपनी आभा से आलोकित कर रहा है।
कविराज जी यथार्थत: क्रान्तदर्शी थे। क्रान्तदर्शी अर्थात् व्यापक दृष्टि सम्पन्न अतीत एवं अनागत प्रत्यक्ष में समर्थ। कवि अर्थात् ''कविर्मनीषी परिभू: स्वयंम्भू''। जो देखते हैं, जानते हैं, वे ही कवि हैं। जो प्रकाश करने में समर्थ हैं वे कवि हैं। उनकी काव्यमयी वाणी, आज भी अमरधाम से अपना सन्देश प्रसारित कर रही है। वह सन्देश है 'अखण्ड महायोग'।
कह चुका हूँ क्रान्तदर्शी की दृष्टि अबाधित होती है । उसके समक्ष अतीत एवं अनागत, नित्य वर्तमान रूप से प्रकाशित होते हैं । देशकाल से अनवच्छिन्न प्रतिभा में सुदूर भविष्यत् का चित्र नित्य वर्तमान भूमि के पट पर अंकित होता रहता है। काल के राज्य में अथवा महाकाल राज्य की सीमारेखा पर भी जिस दृश्य का उदय नहीं हुआ हैं, उसके दर्शन में चित्त अथवा शरीर की कोई उपयोगिता नहीं है। महर्षि पतंजलि कहते हैं ''अनागत भी वस्तुत: वर्तमान से भिन्न नहीं''। हमारे लिये अनागत भूमि में स्थित घटना व्यापक प्रज्ञा सम्पन्न प्रतिभाशाली के लिये वर्तमान रूप है। यही पूर्ण ज्ञान भूमि है। कविराजजी ने इसी पूर्ण ज्ञान भूमि में स्थित होकर 'अखण्ड महायोग' के माध्यम से आसन्न भविष्यत् के महान् परिवर्तन का संकेत दिया है । यह परिवर्तन अवश्यम्भावी है। मानव मात्र को इस कण-कण व्यापी परिवर्तन के लिये अभी से तैयार रहना है। यही इस पुस्तक प्रणयन का उद्देश्य है।
मृत्यु अमृतत्व के क्रोड में विद्यमान है। अमृत या अपरिणामी भाव के क्रोड में परिणामीभाव क्रीड़ा, हास्य, क्रन्दन करता है। श्रान्त होने पर शिशु के समान निद्रित होता है । परिणाम ही मृत्यु स्वरूप है। मृत्यु प्रथम जात है । तैत्तरीय श्रुति ने इसी सत्य का उल्लेख किया । मृत्यु का अतिक्रम करने पर भी महामृत्यु का अवसान नहीं होता । किंचित परिणामी भाव तब भी अवस्थित रहता है । अमरगण भी मृत्यु का अनुगमन करते हें । कठोपनिषद् में नचिकेता मृत्यु संवाद से यह ध्वनित होता हे कि यम भी मृत्यु का अतिक्रमण नहीं कर सके । वेद ने मृत्यु एवं अमृत-दोनों को प्राण रूप कहा है । यह प्राण व्यष्टि एवं समष्टि उभय भेद से उपलब्ध है । समष्टि की संकुचित अवस्था व्यष्टि है । इसी व्यष्टि का विकास होने पर समष्टि की उपलब्धि होती है। यह समष्टि प्राण ही समष्टि मृत्यु का, काल का, विनाश कर सकेगा । प्रकारान्तर से मन का एक अंश (प्राण) आलोक में है । अन्य सत्ता अन्धकार में रह गई है, जिसका नाम काल का मन है। काल की कलना मन से होती है, किन्तु अन्धकार (काल) स्थित मन अचेतन मन है। इस अचेतन मन में चेतना का संचार होने पर मनुष्य आत्महारा नहीं होगा । आसन्न परिवर्तन के कराल क्षण में वह बोध युक्त रहेगा। प्रकाशस्थित (प्राणस्थित) बोध से काल (अन्धकार) स्थित मन रूपी बोध का मिलन ही महायोग है। यही है प्रकृत सामरस्य । यह महामिलन अभी तक काल के प्रभाव वश नहीं हो सका। काल के समूल नाश के पश्चात् यह महायोग, महासामरस्य अथवा महामिलन अनुभूत होगा।
इस सत्य की धारणा सब के द्वारा सम्भव नहीं । जिनका आकर्षण सर्वभूत में समरस है, जिनका प्रेम विश्वव्यापक है, जिन्होंने आत्मा में सर्वभूत एवं सर्वभूत में आत्मा का निरीक्षण किया है, जिनकी गति अव्याहत है, वे ही इस सत्य की धारणा करने में समर्थ हैं । अन्य को यह ग्रंथ केवल शब्द विन्यासमय अथवा आकाश कुसुमवत् प्रतीत होगा । परिच्छिन्न भाव से इसकी अवधारणा सम्भव नहीं। जो उदारचेता हैं, जिन्होंने स्वल्पात्मकता का परित्याग कर सर्वात्मकता का किंचित आस्वादन किया है, वे इस सार्वभौम अखण्ड सत्य को चरमसत्य रूप से ग्रहण कर सकेंगे।
कविराज जी ने अव्यक्त-अव्याकृत अवस्था से अन्धकार (काल) एवं प्राण (आलोक की उत्पत्ति का उल्लेख किया है । पुराणों एवं अन्य ग्रंथों में भी ऐसा उल्लेख मिलता है । सूर्यसिद्धान्त के अनुसार अव्यक्त परमपुरुष, अव्यय एवं निर्गुण है । वही जगत् का उपादान स्वरूप है । इन्होंने आदि सृष्टि हेतु वीर्य निक्षेप किया । जो अन्धकार में घिरी हुई एक सुवर्णमय अण्डाकृति में परिणत हुआ । इस स्वर्ण अण्ड का अभिमानी ही समष्टि मन है । आदि होने के कारण आदित्य भी है । (द्रष्टव्य सूर्यसिद्धान्त, द्वादश अध्याय) समष्टिमन ही परमपुरुष हिरण्यगर्भ है ।
''समष्टिभावापन्न मन एव परम पुरुषो हिरण्यगर्भ:'' (योवा० टीका) ऋग्वेद में जो हिरण्यगर्भ है-वही विश्वप्राण, विश्वमन है । इस विश्वमन (समष्टिमन) को निजस्व: कर सकने से सतत् परिणामीभाव (मृत्यु) का अवसान होगा। समस्त वैषम्य निवृत्त होंगे। असीम समतानन्द का उद्रेक होगा। दार्शनिक हर्बर्ट स्पेन्सर के अनुसार साम्यावस्था ही परिणाम की अस्य सीमा है ।
कविराज जी के अनुसार विशुद्धसत्ता का अवतरण हो चुका है। काल नाशक कर्म की परिसमाप्ति भी हो चुकी है। शेष है प्रत्येक व्यष्टि में इसका अवतरण। यह कर्म है मात्र 'माँ' को पुकारना । यथासाध्य शिशुभाव की प्राप्ति से ही 'माँ' को पुकारना सम्भव है। शिशुभाव का उद्वोधन ही अखण्ड महायोग की कर्म साधना है । एक प्राचीन उक्ति का उल्लेख करता हूँ।
भूमिका
'अखण्ड महायोग' ग्रन्थ का आलोच्य विषय प्रकारान्तर से सूर्य-विज्ञान है। इस सृष्टि में हमारे ब्रह्माण्ड ऐसे करोड़ों सूर्य देदीप्यमान हैं, परन्तु इनमें से कोई भी सूर्य 'आत्मा जगतस्थुपश्च' नहीं है। सूर्य वस्तुत: आत्मनीन तथा अध्वनीन मौलिक वृत्ति सामंजस्य संस्थापक 'नाभि' है, जहाँ से शक्ति समस्त रचना के अर तथा नेमि को एक एक विशिष्ट संस्थान दे रही है। (As process paths andfield on shpere) । साधना का सामंजस्य समीकरण आज भी ध्रुव तथा पूर्ण समाधान प्राप्त नहीं कर सका है । अतएव बाह्य विश्व में आज भी शुद्ध सूर्य तत्व की उपलब्धि समग्र रूप से नहीं हो पा रही है । महाप्रणव के उर्ध्वप्रदेश में स्थित बिन्दु जो शैवागम के अनुसार असीम परमेश्वर की बोध रूपी बिन्दुकला है, उसे ही वास्तविक चित् सूर्यदेव का सर्वव्यापी मण्डल माना गया है। यह मण्डल आन्तरिक चिद् भूमिका पर केवल योगीश्वरो द्वारा अनुभवगम्य है, परन्तु वह बाह्य विश्वभूमिका पर महत्तम रूप में युगपद् रममाण होने पर भी सर्वजन सुलभ नहीं है। केवल चिद्भूमि पर आरूढ़ योगीगण ही इसका साक्षात्कार कर सकते हैं । साधारण जनमानस के लिये यह तत्त्व सर्वथा अगोचर रह जाता है।
कुछ समय पूर्व योगिराजधिराज विशुद्धानन्द परमहंसदेव ने करुणार्द्र चित्त की अवस्था में (अर्थात् हृदय में करुणा का संचार होने पर जीव जगत के दुःख से व्यथित होकर) संसार के दुःख की समस्या के सर्वान्तिक समाधान का जो प्रारूप अन्तर्जगत् में प्राप्त किया था वही है सूर्य विज्ञान अथवा अखण्ड महायोग । उनके अनुसार इस धारा का स्रोत 'ज्ञानगंज' नामक उच्च अध्यात्मिक भूमि से निर्गत होकर उनके माध्यम से जीव जगत की परम-चरम परिणति की दिशा में सतत प्रवहमान है। यद्यपि यह धारा जिस भूमि से निर्गत है वहाँ भूत, भविष्य, वर्तमानात्मक त्रिकाल नित्य वर्तमान बिन्दु पर स्तिमित होने के कारण सब कुछ प्रत्यक्ष रूप है, परन्तु जब वह धारा इस कालराज्य में प्रवेश करती है, तब इस कालराज्य के अकाट्य नियम के कारण उसमें भी क्रम का अनुभव प्रत्यक्षगोचर होने लगता है । इस कारण विशुद्धानन्द देव के अकथ परिश्रम के उपरान्त यथार्थ सूर्यविज्ञान का अवतरण विश्व के कण-कण में हो जाने पर भी उसका अनुभव जीववर्ग को नहीं हो पा रहा है, क्योंकि कालभग भी यहाँ आकर कालसापेक्ष हो जाता है। साक्षात् परमेश्वर इस आयाम में अवतार लेने के उपरान्त कालातीत होने पर भी महाकाल के प्रशासन के अन्तर्गत हो जाते हैं । यही कारण है कि सूर्यविज्ञान का यथार्थ प्रस्फुटन समग्र जीववर्ग में युगपत् रूप से (एक साथ) अभी भी नहीं हो सका है और महाजनगण उसके प्रस्फुटन के लिये प्रतीक्षारत हैं।
यहाँ यह महाश्चर्य है कि महाबिन्दु में प्रवेश करके देखने पर सिद्धगण यह प्रत्यक्ष अभिज्ञता प्राप्त करते हैं कि जीव जगत की अनादिकालीन आर्तना से द्रवीभूत होकरसूर्यविज्ञान का अवतरण सचराचर में हो चुका है, परन्तु त्रिकाल बाधित कालराज्य में प्रवेश करने पर यह ज्ञात होता है कि सचराचर में व्याप्त हो जाने पर भी, कण-कण में इस महान् विज्ञान का अवतरण हो जाने पर भी, उसका आस्वादन जीव जगत के लिये अभी भी आकाश कुसुमवत् अप्राप्त है। वह समय अभी भी दूर है। वह प्रतीक्षित है। कब होगा, इसका आकलन करना अभी भी दुष्कर है।
इस प्रसंग में यह भी स्मरण रखना होगा कि प्रभु जगद्वन्धु राधास्वामी सम्प्रदाय के गुरु ब्रह्मशंकर जी, योगी अरविन्द प्रभृति सभी ने एक ऐसी स्थिति का वर्णन किया है कि महाप्रकाश सृष्टि के प्रत्येक जीव में अवतरित हो जायेगा और उनका यह भी कथन है कि अति निकट भविष्य में ऐसा होने जा रहा है । परन्तु दीर्घकाल अतिवाहित हो जाने पर भी, कई पीढ़ियाँ गुजर जाने पर भी, उसका अवतरण सृष्टि में होता परिलक्षित नहीं हो रहा है । तब क्या इन महाजनों का कथन असत्य है? यह शंका उत्थित हो जाना स्वाभाविक है । यहाँ विशेष तथ्य यह है कि प्रातिभज्ञान सम्पन्न मनीषीगण के लिये भूत भविष्य वर्त्तमानात्मक त्रिकाल की सत्ता नहीं रह जाती। उनकी प्राज्जल दृष्टि मे सब कुछ नित्य वर्त्तमानात्मक प्रतिभात होता है । अत: हो सकता है कि उनकी इस नित्य वर्त्तमानात्मक स्थिति में जो सत्य हस्तामलकवत् प्रत्यक्षगोचर हो रहा है, वह त्रिकाल की परिधि में पड़े हम लोगों के लिये सुदूर भविष्यत् के क्षितिज में जा पड़ा है । काल जगत् में कालातीत वस्तु की सम्भावना कर सकना अति दुष्कर है । तथापि यह सत्य है कि मनीषीगण ने जिस अवतरण को प्रत्यक्ष किया है वह किसी न किसी काल में अवतरित होकर समस्त सृष्टि की अनन्तकालीन आर्त्तना का निवारण करेगा । लेकिन यह कब होगा, कह सकना दुष्कर है। क्योंकि साधना का व्यष्टिगत क्रम तथा उसका सामञ्जस्य समीकरण (Harmony Function) आज भी अपने ध्रुव को तथा पूर्ण समाधान को प्राप्त नहीं कर सका है । इसके लिये कर्म की आवश्यकता पर ग्रंथकार ने बल दिया है।
यह जगत् कर्ममूर्ति है । कर्म द्वारा ही कर्म का लंघन हो सकता है। जैसे कांटे से ही काँटा निकाला जाता है, वैसे ही कर्म द्वारा कर्म की परिधि पार की जाती है । नियम है कि सृष्टि का सब कुछ, जीव जगत, समग्र ही अपूर्ण है, परिच्छिन्न (Finite) है। अपूर्ण को ही पूर्ण होने की चेष्टा करनी है । जो अनाप्तकाम है वही ईप्सिततम् को पाने के लिये कर्मरत है । कर्मशील होने के कारण समस्त संसार अपूर्ण है। यही इसका दुःख है। प्रकारान्तर से यही प्राणिमात्र की आर्त्तना है जो अनेक प्रकार के अभाव रूप में प्रकट होती रहती है । इसका निराकरण सूत्र क्या है? ग्रंथकार कहते हैं कि समस्त कर्म की पूर्णता हेतु समस्त आर्त्तना के निवारण के लिये मनुष्यमात्र को कुछ न करके शिशु भावापन्न होकर ' माँ ' शब्द का अवलम्बन लेना होगा ।
'म' स्पर्शवर्ण वर्ग का अन्तिम वर्ण है । इसके द्वारा मात्रा स्पर्श आदि समस्त स्पर्श के शेष का उद्देश्य प्राप्त होता है । उद्देश्य अवश्य प्राप्त होता है, परन्तु यह कहाँ तक शेष है, यह भेष क्या है? यह खोज बाकी रहती है । यह चिन्तना होते ही अर्द्धमात्रा ' आ ' उद्बुद्ध होकर ' म ' को अपनी मर्यादा देती है । 'आ' स्वर 'म' के साथ युक्त होकर उसको मर्यादा दान देता ड़ै । जब तक समस्त स्पर्श के उस पर जो अस्पृक् (अम्) है उसकी सर्वतोव्याप्ति (Immanenac and absolute Transcendence) इन दोनों को नहीं मिलती, तब तक निरतिशय पर्याप्ति नहीं होती । अत: 'म' के साथ ' आ ' मिलित होने पर यह परमाव्याप्ति हो जाती है । अब मन्त्र का रूप है मा ऽ मा! अत: प्रणव के सप्तपाद भी ' मा ' रूपी परमरहस्य नाम में मिलित हो जाते हैं। यह मातृमान मिलने पर जो अघटन घटित होगा वह यह है कि इस ' मा- मा ' रूपी महामंत्र की पुकार से (मनुस्वरात्) ' वे ' हममे आयेंगी । सभी मा है, सभी वे हैं । इस परम उपलब्धि से ज्योति तथा रस का आप्यायन होता है । इस मातृमान की प्राप्ति से समस्त यातुधान (राक्षस) (विपरीत स्थिति, अभाव) पलायित हो जाते हैं ।
प्रणव के अ- उ-म में प्रथम दो अक्षरों के अनन्तर 'म' है । प्रथम दो अर्थात् 'अ' तथा 'उ' प्रवेश कर रहे हैं 'म' में । व्याहरण मे 'म' अवशिष्ट रह जाता है। अब अर्धमात्रा 'आ' इसमें प्रसन्न होकर जुड़ जाती है । अकलातिग-कालातीत तक यह विस्तार संभावित हो जाता है । पुकारने वाला कालातीत हो जाता है। इसी कारण 'मा' नाम में प्रणव के सप्तपाद सम्पुटित हैं । यह कर्म की पूर्णता का महामंत्र है, जिसे अखण्ड महायोग में सर्वोच्च स्थान दिया गया है । यह महामंत्र कालभंग तथा कर्मपूर्णत्व का मूलाधार है। इसी से अभाव की इस सृष्टि में भाव का उन्मेष होता है । यह मन्त्र अथवा पुकार इस सृष्टि में गुरुराज्य की स्थापना के लिये आवश्यक है ।
जीव तथा जगत् के दुःख से महात्मागण चिरकाल से क्षुब्ध होते रहे हैं । जो महात्मा जितने समर्थ थे उन्होंने उतने परिमाण में दुःख दूर करने का प्रयास किया । जब क्रमोत्कर्ष के नियम के अन्तर्गत् उनकी करुणा रूपी वासना की निवृत्ति हो गई, तब वे परामुक्ति को प्राप्त होगये और उनके द्वारा जीवोद्धार कार्य का समापन हो गया । सृष्टि के प्राक्काल से ही गुरु- मण्डल द्वारा अविश्रान्त भाव से जीवोद्धार कार्य चलता आ रहा है परन्तु लोकक्षयकारी काल के प्रभाव से आज तक जीव दुःख की निवृत्ति न हो सकने का कारण यह है कि अभी तक दुःख रूपी वृक्ष की शाखायें ही काटने का काम किया गया, परन्तु उस वृक्ष का मूलोच्छेद करने की तत्परता अभी तक परिलक्षित नहीं हो सकी। मूलोच्छेद होगा काल की निवृत्ति से । अर्थात् जिस काल के अधीन होकर जीव जगत् यंत्रणा भोग कर रहा है, उस काल की निवृत्ति के बिना दुःख वृक्ष का मूलोच्छेद कदापि सम्भव नहीं है।
सृष्टि का नियम यह है कि सृष्टि में सब कुछ अपने भोगकाल पर्यन्त ही स्थायी रहता है । भोगकाल समाप्त हो जाने पर वह भी समाप्त एवं निवृत्त हो जाता है । इसी प्रकार काल का शासनकाल अथवा अधिकार काल समाप्त हो जाने पर स्वभावत: निवृत्त हो जाता है । कविराज जो का कथन है कि इस समय काल का भोगकाल समाप्त होने को आ रहा है । उसे निवृत्त करके उसे आयत्त करने का समय आसन्न है । यह है ज्ञानगंज के गुरु मण्डल का कार्य । जैसे काल का शासनकाल है उसी प्रकार गुरु मण्डल का भी शासनकाल है । काल के शासनकाल में गुरुमण्डल को भी एक प्रकार से काल की नीति का अनुसरण करके ही अपना कार्य करने के लिये विवश होना पड़ता है । उसका अनादर करने से गुरु का स्वकार्य भी बाधित हो सकता है । काल की स्थिति अखण्ड दण्डायमान काल तथा खण्ड कलनात्मक काल रूप से द्विविध है । काल का स्वरूप सूर्य संहिता में विवेचित है-
लोकानामन्तकृत् काल कालोऽन्य कलनात्मक: ।
स द्विधा स्थूल सूक्ष्मत्वार्म्त्तश्चामूर्त्त उच्यते ।।
मूर्तकाल जीवन मरण के रूप में प्रत्यक्ष गोचर है । अमूर्तकाल जीवन मरण का कारण है प्रत्यक्ष गोचर नहीं है । वह ज्ञान का विषयीभूत नहीं है । मूर्त्तकाल को विजित कर लेने पर भी अमूर्त्त काल शेष रह जाता है । इसका निवारण आज तक संभव नहीं हो सका । गुरुमण्डल इसी की निवृत्ति के लिये प्रयत्नरत है । इसे निवृत्त करने के लिये ' क्षण ' को प्राप्त करना होगा । क्षण ज्ञान के लिये ' एको एव: क्षण: ' रूप से श्रुति ने यह कहा है कि एक ही क्षण वस्तुत: है और उसी एक क्षण में समस्त सृष्टि-स्थिति तथा लय की अनन्त क्रीड़ा हो रही है । अखण्ड महायोग में इसी क्षणज्ञान के प्रकाशन से कालभग होगा । सृष्टि में नित्यवर्त्तमान का आविर्भाव होगा । क्षण में कम्पन के फलस्वरूप हमें भूत- भविष्यात्मक् काल स्थिति प्रतिभात हो रही है । यही दुःख का कारण है । कम्पन रहित स्थिर क्षण की प्राप्ति से ही अमूर्त्त काल का निवाराण होता है। क्षणावतरण के लिये आर्त्तभाव से शिशु भावापन्न होकर 'मा' शब्द की पुकार सब के लिये आवश्यक है।
पहले कहा गया है कि गुरुमण्डल का अपना शासनाधिकार है तथा काल का अपना शासनाधिकार है तथापि गुरुमण्डल भी कालराज्य में काल का अनुवर्त्ती होकर अपना कार्य करता है । यहाँ तक कि भगवान् राम को अवतार ग्रहण का उद्देश्य ससिद्ध हो जाने पर अमूर्त्तकाल का निर्देश मानना पड़ा था। लीलावसान के अवसर पर वह अखण्डदण्डायमान काल उनसे लीला संवरण करने का अनुरोध करता है जिसे श्रीराम को मानना पड़ा-
शृणु राजन् महासत्व यदर्थ महभागत: ।
पितामहेन देवेन प्रेषितोस्मि महाबल ।।
काल तथा किया एक है । निविष्ट भाव से चिन्तना करने पर उपलब्धि होती है कि यह क्रियामूर्ति है । अनागत, अखण्ड दण्डायमान सूक्ष्म काल से ही Time और Space की उत्पत्ति होती है जिससे एक अखण्ड क्षण कम्पायित होकर भूत- भविष्य-वर्तमानात्मक त्रिकाल रूप से जागतिक आर्तना एवं दुःख का कारण बन जाता है । गुरुमण्डल इसी ज्ञानगंज में स्थापित होकर क्षण को आयत्त करने के लिये सक्रिय है । जैसे काल के अधिकार क्षेत्र अथवा शासनकाल में गुरुमण्डल उसके अनुवर्त्ती रहकर कार्य करता रहता है उसी प्रकार गुरु राज्य में गुरु के अधिकार क्षेत्र में काल का प्रकोप नहीं रहता और वह गुरु की इच्छा के अनुवर्ती होकर कार्य करता है । अत: ज्ञानगंज नामक गुरुमण्डल के अधिकार क्षेत्र में अखण्ड महायोग का जो कार्य चल रहा है उसमें काल अधिष्ठाता नहीं है प्रत्युत् गुरु इच्छा के अधीन प्रतिबद्ध है । परन्तु जगत में जब गुरुमण्डल से कोई भी महात्मा अवतीर्ण होता है तब वह काल का शासनाधिकार मानते हुए ज्ञानगंज का अमर साधना संदेश दुःखतप्त मानवता के लिये प्रकाशित कर अन्त में मृत्यु को प्राप्त हो जाता है । उसके अनुसार अखण्ड गुरु के प्राकट्य के साथ-साथ कालभंग सम्भव हो सकेगा यह अवश्यंभावी है । गुरुराज्य की स्थापना के उपरान्त समस्त जीव पूर्णता तृप्ति तथा परमानन्द से आप्यायित, सराबोर हो जायेंगें । कोई भी अकिंचन से अकिंचन, छोटा से छोटा जीव भी लेशमात्र दुःख का अनुभव नहीं करेगा। अखण्ड महायोग इसी महा अवस्था के उदय का प्रकाशस्तंभ है ।
काल क्रियामूर्ति है । उसका लंघन क्रिया से ही हो सकता है । क्रिया ही उस स्थिति तक उन्नीत कराती है जहाँ मात्रा स्पर्श रहित निष्क्रियता है । यह निष्क्रियता जड़ता पदवाच्य नहीं है, प्रत्युत् जीव का सर्वान्तिक समर्पण है । जिसमें वह द्रष्टाभाव की स्थिति प्राप्त कर लेता है । तब कर्त्ता ही अकर्त्ता बन जाता है । अखण्ड महायोग की धारा में क्रिया तथा त्रिकाल की योजना अत्यन्त वैज्ञानिक रूप से की गई है । क्रिया में ही एक ऐसा बिन्दु है जो उसे निष्क्रियता की चरम भूमि पर पहुँचा देता है और त्रिकाल में ही एक ऐसा बिन्दु है जो उसे कालातीत में आरूढ़ करा देता है। यही है साधन कौशल । अर्थात् जब क्रिया को सुषुम्ना की धारा में समर्पित कर देने का कौशल गुरुकृपा से प्राप्त हो जाता है, तब वही निष्क्रिय (समर्पित) हो जाती है । और कालधारा का विलीनीकरण साधन संधि स्थल पर
होता है। रात्रि-दिन (नक्तदिवा) की जो सन्धि है, उस शून्य बिन्दु (Neutral Point) को खोजना होगा। एक सन्धि है उदय अथवा उत्थान की संधि, दूसरी है उन्मेष की सन्धि, तृतीय है अवसान की सन्धि । प्रथम संधि है स्वर संधि, द्वितीय है व्यंजन संधि, तृतीय को विसर्ग संधि भी कहा जाता है । संधि सन्धान के अभाव में काल का द्वन्द्व (दिन तथा रात्रि का द्वन्द्व) नहीं मिटता।
नक्तंदिवमिति द्वन्द्वे यः सन्धि: सन्दधीत तम् ।
ऋते न सन्धिसन्धानादहोरात्र समन्वय ।।
महानिशा सन्धि को अखण्ड महायोग में सर्वोपरि स्थान दिया गया है । १२ बजे अर्द्धरात्रि के समय कालनाशक कर्म की क्रिया करने का विधान है । इस अवसान सन्धि के समय साधना करने से काल का अवसान सम्भव है । परन्तु इसके लिये समवेत कर्म आवश्यक है । सन्धिसन्धान से ही क्षणप्राप्ति होती है । यह सन्धि ही अविशेष भाव है- अहर्निश गत सन्धि यत्राहर्न चशर्वरी। न जागतिर्न सुप्तिर्वा तस्या विशेषता मता ।। अविशेष भाव के उदय से समर्पण होता है । यथार्थ समर्पण अविशेष भाव के अभाव में नहीं हो सकता और समर्पण के अभाव में यथार्थ अकृत्रिम शिशुभावापन्न होना असम्भव है और प्रकृत शिशुभाव के अभाव में ' मा ' शब्द का वास्तविक उच्चारण अथवा पुकार कैसे सम्भव है?कर्म के ३ मुख्य अंग अखण्ड महायोग में माने गये हैं । क्रिया, जप तथा सेवा । इनका वरण गुरुपूर्णिमा को किया जाता है । मातृसेवा अखण्ड महायोग की चिरकाल स्वीकृत प्रथा है । इससे साधन जगत् के अन्तराय दूरीभूत हो जाते हैं । महानिशा संधि कर्म भी सेवा कर्म है ।
यह पूर्ण महाशक्ति की सेवा है । क्रिया से लक्ष्य का उन्मेष होता है । जप द्वारा पूर्णत्व प्राप्ति ' होती है । साथ ही गुरुदत्त काया की प्राप्ति हो जाती है । तृतीय है मातृसेवा । इसमें सप्तदश
कलात्मक मां की सेवा होती है । अर्थात् १७ कुमारी कन्याओं का पूजन विधान किया जाता है । कुमारी तत्व वास्तव में निराकार है । जगत् में इनका साकार रूप है कुमारी कन्या । लौकिक कुमारी ही अखण्ड मातृस्वरूप का एक अंश है । जब वास्तविक कुमारीतत्त्व का आत्मप्रकाश होगा तभी समस्त जगत् ब्रह्ममय और आर्त्तना रहित होगा । अर्थात् जगत ही ब्रह्मभूमि हो सकेगा । कुमारी सेवा से कालभग कर्म साधित हो जाता है । इस प्रसंग में जिस खण्ड काल की चर्चा की गई है वह बुद्धि जनित है । एक अखण्ड काल ही बुद्धि में क्रमारोपण के कारण त्रिकाल बन जाता है । वस्तुत: परमतत्व के एक क्षणमात्र मे ही जीव जगत अनन्तकालीन सृष्टि का अनुभव कर रहा है । वास्तव में अनन्तकाल चिरकाल जैसा कुछ भी नहीं है । मात्र एक क्षण की ही सत्ता है । उसी एक क्षण में इस अनन्तकालीन विश्वपरिणाम का आभासन होता रहता है । अखण्ड महायोग की दृष्टि में करोड़ो-अरबों वर्ष का जो यह अज्ञान जनित आभास है, वह बुद्धिजनित है । मात्र- सब कुछ एक क्षण ही है । अत: इस अखण्ड महायोग का अवतरण कब होगा, यह प्रश्न अज्ञान का परिचायक है । वह इसी समय भी हो सकता है अथवा अनन्त काल, करोड़ों वर्ष बाद भी हो सकता है । 'करोड़ों वर्ष' वस्तुत: बुद्धि में क्रम के कारण विकल्पित हो रहा है । वास्तव में सब कुछ तभी प्रतिभात होगा जब साधक की बुद्धि से क्रमजाल उच्छिन्न होगा । जिस अवतरण की चर्चा इस ग्रन्थ में की गई है, वह है यथार्थत: क्षण का अवतरण । सृष्टि में क्षणधारण सार्मथ्य नहीं होने के कारण आज तक क्षणावतरण नहीं हो सका । ज्ञानगंज की अप्रतिम साधना से सृष्टि में क्षणधारण की क्षमता आ चुकी है । तभी कहा गया है कि अवतरण का समय आसन्न है । सम्पूर्ण विषय अतिगूढ़ तथा गहन है । केवल वाक्यविन्यास से इसके यथार्थ स्वरूप का उद्घाटन नहीं हो सकता । इस हेतु अभिप्रेत है कर्म, जप तथा सेवा की त्रयी।अन्तर्जागरण की अनुभूति के आलोक में इस अखण्ड महायोग ग्रंथ का मर्म मर्मीगण आयत्त कर सकेंगे।
सर्वान्त में श्रद्धेय कविराज जी की पावन स्मृति में प्रणत होता हूँ जिनकी कृपा से यह प्रकाशनोत्सव सफल हो सका है । ग्रंथ के प्रथम संस्करण में अनेक त्रुटियाँ रह गई थी तथा मुद्रण भी अच्छा नहीं था जिसको दोष मुक्त करते हुए माननीय पुरुषोत्तमदास मोदी जी ने ग्रंथ के इस संस्करण को व्यवस्थित तथा परिमार्जित रूप से प्रस्तुत किया है जिसके लिये उन्हें धन्यवाद देता हूँ। इस ग्रंथ में अनेक प्रश्न अनुत्तरित रह गये हैं, परन्तु पृथ्वी विपुला है तथा काल निरवधि है। अत: इस विषय के मर्मज्ञ रसग्राही सर्वदा एवं सर्वकाल में आविर्भूत होते रहेगें। इसकी रहस्यमयता उन्हें अवश्य निमंत्रित करेगी तथा गहन के वे अन्वेषक भविष्यत् में इसमें गोपित रहस्यों को अनावृत्त्त करने में अवश्य तत्पर होगे, यह आशा करता हूँ।
विषयानुक्रमणिका
1
विषय प्रवेश
2
सर्वमुक्ति का महास्वप्न
5
3
कालराज्य से आत्मा का उद्धार
10
4
सृष्टि का उन्मेष
13
देहसिद्धि
21
6
विशुद्ध सत्ता का उदय
27
7
विशुद्ध सत्ता का अवतरण
32
8
कालनाशक कर्म
40
9
महायोग की प्रतीक्षा
47
भविष्यत् चित्र
54
11
उपसंहार
62
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