अबुआ राज की चुनौतियों हिंदी भाषा में लिखित मेरी दूसरी पुस्तक है। वस्तुतः प्रस्तुत पुस्तक, मेरी कर्मसाधना एवं सारस्वत उपलब्धि की आधारशिला है। पिछले 50 वर्षों से एक छात्र एवं शिक्षक के रूप में झारखंड मेरी कर्मभूमि रही है। अतः झारखंडी समाज, इसकी साझा विरासत, इसके सामाजिक-सांस्कृतिक अधिकार के विशिष्ट पहलुओं एवं इसकी आधी आबादी की मौलिक संस्थापना पर टिकी झारखंडी समाज की प्रगतिशील मान्यताओं पर गौरवान्वित होता रहा हूँ। इसके साथ-ही-साथ अंधविश्वास एवं पूर्वाग्रहों से ग्रसित समाज के रूढ़िगत संस्कारों में भुखमरी, दरिद्रता, निरक्षरता और कुपोषण की विलविलाहट एवं इसकी पीड़ा को न सिर्फ महसूस किया है, बल्कि परखा है और अपनी कलम से दर्जनों लेख लिखकर मन की भड़ास निकाली है। लेकिन विपुल संसाधनों वाले झारखंडी समाज में विपन्नता की यह अचेत अवस्था मेरी चेतना को झकझोरती रहती है। सच तो यह है कि झारखंडी समाज की मिट्टी से मेरा रिश्ता अपनी माँ के आँचल में छिपे उस शिशु की तरह है, जो कभी इसकी शीतल, स्नेहिल छाँव से दूर नहीं होना चाहता है। भला कीन पुत्र अपनी माता के आँचल को क्षत-विक्षत होता देखकर चुप बैठा रह सकता है? शायद इसी आँचल की हरीतिमा की लूट के प्रयास को रोकने के लिए बावा तिलका माँझी, वीर सिदो कान्हू और धरती आवा बिरसा मुंडा ने अपनी शहादत दी थी।
झारखंड के परिदृश्य पर आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाली माताओं की टोलियाँ भी अपने वनाधिकार एवं प्राकृतिक संसाधनों की विरासत को अक्षुण्ण रखने के लिए इन्ही शहीदों के कारवों में शरीक होकर खून से लथपथ होती रहीं। वस्तुतः झारखंड की माटी पर अग्नि-पथ का रास्ता जिन माँ-बहनों ने चुना, उनमें फूलो झानो, सिगनी दाई, कैली दाई, माकी मुंडा एवं गया मुंडा जैसी अनेक वीरांगनाओं की चर्चा है। हालाँकि ब्रिटिश इतिहासकारों ने उनकी शहादत को इतिहास के पन्ने पर रेखांकित करने से परहेज किया है। अतः झारखंडी समाज की माताओं एवं वहनों द्वारा झारखंड के निर्माण के लिए दी गई शहादत का यथोचित सम्मान मेरे द्वारा लिखी गई इस पुस्तक की मर्म चेतना है।
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