भारतीय साहित्य का ज्यादातर हिस्सा हमें वाचिक परंपरा से मिला है। ताड़पत्र-भोजपत्र काल के बहुत बाद कागज और कलम युग शुरू हुआ और आज हम लिखने-पढ़ने के लिए कंप्यूटर युग में पहुँच गए हैं, जिसने हर छोटे-बड़े व्यक्ति को लेखक-संपादक और अपने वेब पत्र का स्वामी तक होने का हुनर और अवसर दे दिया है, लेकिन नामवर सिंह जैसे शिखर चिंतक आलोचक वापस ऋषियों-मुनियों की वाचिक परंपरा की ओर मुड़ गए थे। हिंदी का बहुजन समाज नामवर के कागज-कलम छोड़ देने से निराश हुआ था, उन पर तरह-तरह के फिकरे कसे और ताने भी मारे, लेकिन नामवर ने एक बार 'ना' बोल दिया तो फिर कभी कागज-कलम को छुआ तक नहीं। उससे हिंदी साहित्य का कितना नुकसान हुआ, इसे कोई और तो क्या, शायद नामवर खुद भी नहीं जान पाए! बहुत देर से उन्हें इसका एहसास हुआ तो पछताने लगे, क्योंकि उनके जैसे लोग सदी में एकाध ही पैदा होते हैं, जैसे आचार्य रामचंद्र शुक्ल। उनके जीवन काल में नामवर को हम पूरेपन में कहाँ देख सके, लेकिन अब देख सकते हैं। जीवित होते तो अट्ठानवे बरस के हो रहे होते।
नामवर के व्याख्यान का संक्षेपण एक हाउस मैगजीन में देखा तो उसकी गंभीरता देखकर चकित रह गया। मन में आया कि वे अगर इसे थोड़ा ठीक कर दें तो छाप सकते हैं। एक आयोजन में भेंट हुई तो हमने अपनी मंशा जाहिर करते हुए निवेदन कर दिया। अखबारों में छपने वाले साहित्य को हिकारत की नजर से देखने वाले नामवर ने न जाने किस भाव के वशीभूत 'हाँ' कर दी और हफ्ते भर बाद लिखित रूप में व्याख्यान हमें देकर चमत्कृत कर दिया, जिसे हमने अक्षरशः छाप दिया। ढाई सौ शब्दों में छपे व्याख्यान को नामवर ने डेढ़ हजार शब्दों का आलेख बना दिया था। काश! पत्र-पत्रिकाओं में छपे अपने सभी व्याख्यानों को वे इसी तरह विस्तार दे पाते! ऐसा हो पाता तो उनके जो व्याख्यान कई खंडों में छपे हैं, इससे दुगने खंडों में छपते, लेकिन नामवर की ऐसे कामों में शायद रुचि ही न थी। उनकी ऐसी किताबों के संपादक आशीष के अनुसार साल भर तक पांडुलिपियाँ अपने पास रखने के बावजूद नामवर जी ने उनको हाथ तक नहीं लगाया और जस की तस लौटा दीं, लेकिन जब छपीं तो खुश-खुश नजर आए। अपनी इन पुस्तकों के लोकार्पण में हुआ नामवर का व्याख्यान सारगर्भित तो था ही, थोड़ा-सा कहने और थोड़ा-सा सोचने के लिए छोड़ देने वाले रचनात्मक लेखन जैसा मुग्धकारी भी। बहुत पहले नामवर की प्रारंभिक किताबों में से एक 'बकलम खुद' हमें दरियागंज के फुटपाथी बाजार में मिली थी, जिसका दूसरा संस्करण देखने को नहीं मिला। भारत यायावर के संपादन में नामवर की 'प्रारंभिक रचनाएँ' में 'बकलम खुद' को भी शामिल देखकर अच्छा लगा।
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