महाप्राण निराला की प्रसिद्ध कविता 'राम की शक्ति पूजा' पिछले दिनों रह-रहकर याद आती रही। अयोध्या में रामोत्सव के समय भी वह याद आयी। बहुतों ने इसे बहुत बार पढ़ा होगा और बहुतों ने सिर्फ एक बार और बहुतों ने इसका बहुत बार नाम पढ़ा और सुना होगा, लेकिन पूरी या आधी-अधूरी कविता पढ़ने-सुनने का उन्हें अवसर नहीं मिला होगा। इसलिए रामोत्सव के अवसर पर हम 'धरोहर' के अंतर्गत पाठकों के लिए 'राम की शक्ति पूजा' प्रस्तुत कर रहे हैं। पाठक जानते ही हैं कि साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार विजेताओं पर हम एक लेखमाला छापते आ रहे हैं, लेकिन लेखक की अन्यत्र व्यस्तता के चलते उनके अनुरोध को स्वीकार करते हुए इसे स्थगित कर रहे हैं। बहुतों को यह लेखमाला अविस्मरणीय लगी, लेकिन कुछ को इसमें भी कुछ और लग रहा था। अच्छा ही हुआ कि लेखक ने इसे निजी कारणों से खुद ही स्थगित करने की अनुमति माँग ली। उम्मीद कर सकते हैं कि उसकी क्षतिपूर्ति हम भारतीय भाषाओं के लेखकों और उनके सृजन कर्म से कर सकेंगे। वरिष्ठ कथाकार उषा प्रियंवदा के अमेरिका से भारत न लौट पाने के कारणों को इंगित करते उनके जीवन और कर्म पर छाया श्रीवास्तव का आलेख छापकर हम इसकी शुरुआत कर रहे हैं। ये वही छाया श्रीवास्तव हैं, जिन्हें उषा प्रियंवदा ने अपनी गोद में खिलाकर बड़ा किया।
भारत के लिए राम भारत का पर्याय हैं। उनके बिना भारत के इतिहास की चर्चा ही नहीं शुरू हो सकती, जैसे कृष्ण के बिना, जैसे बुद्ध और महावीर के बिना और जैसे गाँधी तथा अंबेडकर के बिना भारत के इतिहास को आकार नहीं दिया जा सकता। सुभाषचंद्र बोस और भगत सिंह जनता के दिलों में बसते हैं, लेकिन आजादी के बाद सत्ता के गलियारों में उनको वह महत्त्व नहीं मिला, जिसके वे अधिकारी थे। हो सकता है कि उसके कुछ विशेष कारण रहे हों, लेकिन उम्मीद कर सकते हैं कि अब उन्हें भी गाँधी और अंबेडकर की तरह महत्त्व और स्थान मिल सकेगा। इस बीच कुछ और लोगों को हमने 'भारत रत्न' मान-जान ही लिया है आखिर।
प्रसिद्ध कवि शिव ओम 'अंबर' की कुछ काव्य पंक्तियाँ अक्सर पढ़ते रहे हैं, जिनसे राम की महत्ता उजागर होती रही है राम हमारा कर्म, हमारा धर्म, हमारी गति है। राम हमारी शक्ति, हमारी भक्ति, हमारी मति है। बिना राम के आदर्शों का चरमोत्कर्ष कहाँ है? विना राम के इस भारत में भारतवर्ष कहाँ है? उर्दू कवि इकबाल भी शायद इसीलिए लिख गए हैं: "है राम के वजूद पर हिंदोस्तां को नाज।"
राम को हम मर्यादा पुरुषोत्तम कहते-मानते हैं, क्यों? इसे श्रीनरेश मेहता के काव्य 'संशय की एक रात' की कुछ पंक्तियों में देख सकते हैं धनुष, बाण, खड्ग और शिरस्त्राण/ मुझे ऐसी जय नहीं चाहिए / बाणबिद्ध पाखी-सा विवश साम्राज्य नहीं चाहिए। मानव के रक्त पर पग धरती आती / सीता भी नहीं चाहिए / सीता भी नहीं। श्रीनरेश मेहता के काव्य 'संशय की एक रात' के राम का यह रूप हमने भारतीय साहित्य में संभवतः पहली बार पढ़ा-देखा कि राम को रक्तरंजित युद्ध के जरिये विजय नहीं चाहिए, ऐसा साम्राज्य भी नहीं चाहिए और ऐसे वापस नहीं चाहिए रावण के द्वारा हर ली गई सीता भी। सीता भी नहीं चाहिए।
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