शायद ही कोई ऐसा हिंदीभाषी हो, जिसने छात्र जीवन से लेकर अंत समय तक कभी शाय न कभी ये पंक्तियाँ गुनगुनायी या सुनी नह हों "जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है। वह नर नहीं, नर-पशु निरा है और मृतक समान है।" मगर कितने लोग होंगे, जो इसके सर्जक का सही नाम तक जानते हों। कई विद्वानों ने इन पंक्तियाँ का सर्जक मैथिलीशरण गुप्त को माना, जबकि मैथिलीशरण गुप्त के ही अनुसार ये पंक्तियाँ महावीरप्रसाद द्विवेदी ने गणेशशंकर विद्यार्थी को अपने हाथ से लिखकर तब थमा दी थीं, जब उन्होंने साप्ताहिक अखबार 'प्रताप' प्रारंभ करने से पूर्व उनसे आशीर्वाद माँगा। ये पंक्तियाँ 'प्रताप' के मुखपृष्ठ पर हमेशा छपती रहीं। बाद में इन पंक्तियों की भावधारा को आगे बढ़ाते हुए गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही' ने 'स्वाभिमान' और 'स्वदेशाभिमान' जैसी कविताएँ लिखीं, जो 'प्रताप' के 'राष्ट्रीय वीणा' विशेषांक में ही छपीं, लेकिन समय की विडंबना देखिए कि स्वाधीनता संग्राम के एक योद्धा-पत्रकार के ऐसे जीवन प्रसंगों तक से ज्यादातर लोग अपरिचित हैं। विद्यार्थी जी सांप्रदायिकता की आग में जलकर भस्म हो गए। ऐसे योद्धा-पत्रकार के जीवन और कर्म को समग्रता और सही रूप में जानना-समझना जरूरी है।
चालीस बरस से कुछ अधिक के अपने छोटे से जीवन में विद्यार्थी जी ने न सिर्फ राष्ट्रीय पत्रकारिता की निर्भीक मशाल जलाए रखी, बल्कि बहुमुखी विकास कर उसका स्तर भी ऊँचा उठा दिया। उनमें हिंदी के तीन दिग्गज पत्रकारों का अनुभव एकाग्र होकर फलित हुआ-पंडित सुंदरलाल के 'कर्मयोगी' और 'स्वराज्य' के पालने पर विद्यार्थी जी के युवा पत्रकार का पालन-पोषण हुआ तो साहित्यिक पत्रकारिता के सिरमौर महावीरप्रसाद द्विवेदी के साथ 'सरस्वती' में काम करने का अवसर भी उन्हें मिला और राजनीतिक पत्रकारिता के प्रकाश पुंज कृष्णकांत मालवीय के साथ उन्होंने 'अभ्युदय' में काम किया। इन बड़ी प्रतिभाओं के साथ काम करने के बाद उन्होंने अपना अखबार 'प्रताप' शुरू किया। बाद में माखनलाल चतुर्वेदी की 'प्रभा' को पुनरुज्जीवित कर हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता को भी उत्कर्ष प्रदान किया। सो, स्वाधीनता सेनानी होने के साथ वे पराड़कर और महावीरप्रसाद द्विवेदी की परंपरा के लेखक संपादक भी रहे।
महावीरप्रसाद द्विवेदी के आग्रह पर लिखे गए अपने पहले निबंध 'आत्मोत्सर्ग' में विद्यार्थी जी ने लिखा था कि "आत्मोत्सर्ग सुकर्म के लिए ही किया जाता है। आत्मोत्सर्ग करने वाले में साहस का होना आवश्यक है। संसार के सब काम (बड़े या छोटे, बुरे या भले) साहस के बिना नहीं होते। बिना साहस के बड़े कामों का होना कठिन ही नहीं, असंभव है। बिना किसी प्रकार का साहस दिखलाए किसी जाति या देश का इतिहास बन ही नहीं सकता।"
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