बहुत पहले कभी पंजाबी कथाकार अमृता प्रीतम की आत्मकथा 'रसीदी टिकट' छपी तो खूब वाद-विवाद और प्रतिवाद हुए, खासकर साहिर लुधियानवी के प्रति अमृता की अनुरक्ति को लेकर, जैसे हरिवंशराय बच्चन की आत्मकथा 'क्या भूलूँ, क्या याद करूँ' में दर्ज हिंदी कथाकार यशपाल की धर्मपत्नी प्रकाशवती पाल के प्रसंग को लेकर हुए। मलयाली कथाकार कमला दास की आत्मकथा 'मेरी कहानी' भी चर्चा-कुचर्चा का विषय बनी थी। यहाँ गौरतलब बात यह है कि इन आत्मकथाओं में सवालों के घेरे में सिर्फ स्त्री का चरित्र आया, पुरुष का नहीं। 'महाभारत' के चरित्रों में कुंती और द्रौपदी के साथ क्या हुआ, हम सब जानते ही हैं, खासकर कुंती के विवाहपूर्व जन्मे पुत्र कर्ण को लेकर। सो, प्राचीन काल से ही स्त्री का विवाहपूर्व गर्भधारण वाद-विवाद और प्रतिवाद का विषय बनता रहा, आज भी वनता ही है। टीवी कलाकार नीना गुप्ता का बिना विवाह किये माँ बनने का प्रसंग भी बना ही था। वे चाहतीं तो गर्भपात से इससे मुक्त हो सकती थीं, लेकिन उन्होंने गर्भ पर अपने अधिकार की रक्षा की और माँ बनीं, पर ज्यादातर देशों में गर्भपात को अपराध माना जाता है। अमेरिका में पहले गर्भपात की अनुमति दे दी गई, लेकिन फिर कुछ राज्यों में उसे वापस ले लिया गया यानी वहाँ गर्भपात करना-करवाना अब अपराध की श्रेणी में आ गया है और भारत में कन्या भ्रूण की पूछ और परख तक अपराध है। देश और दुनिया के हित में कन्या भ्रूण बचाने जरूरी हैं, लेकिन विवाहपूर्व गर्भधारण को लेकर देश और दुनिया आज भी सहज नहीं है। उसे स्त्री का नहीं, पति, परिवार और समाज का विषय माना जाता है, जबकि है यह स्त्री की निजता का ही मामला। अपनी कोख के बारे में स्त्री क्या सोचती, क्या चाहती और क्या सोचती, क्या चाहती और क्या निर्णय लेती है, इसे उसी पर छोड़ दिया जाना चाहिए, लेकिन बीच में विधि-विधान आ जाएँ तो स्त्री की राय और इच्छा अक्सर नजरंदाज हो जाती है। स्त्री अगर कामकाजी हो तो मामला और भी उलझ जाता है। कब गर्भधारण करना है, नहीं करना है। कोई भूल हो जाए तो गर्भपात करना-करवाना है या नहीं, इसका फैसला करने का अधिकार स्त्री को ही होना चाहिए। बीच में पति, कोई पुरुष, परिवार या समाज को क्यों आना चाहिए। अपने गर्भ की सारी जिम्मेदारी स्त्री को ही तो उठानी पड़ती है। इस संदर्भ में याद आ रही है इटैलियन कथाकार ओरियाना फेलाची की बहुचर्चित कृति 'लेटर टु ए चाइल्ड नेवर बॉर्न', (अजन्मे बच्चे के नाम एक खत), जिसमें उन्होंने लिखा है: "धागे की तरह बहुत पतली होती है बुद्धिमानी और मूर्खता को अलग करने वाली रेखा। एक बार धागा टूट जाए तो दोनों चीजें एक-दूसरे में कुछ यों मिल जाती हैं, जैसे प्यार और नफरत, जीवन और मृत्यु ।
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