भारत में सबसे अधिक लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा हिंदी के सिवा कोई और नहीं महात्मा गाँधी और उनके समकालीन लगभग सब लोग सहमत थे कि हिंदी ही देश की संपर्क भाषा हो सकती है। वह हुई भी, उसे देश की राजभाषा होने का गौरव भी हासिल हुआ, लेकिन हमारी कोशिशों में कहीं कोई कमी रह गई कि हम कभी गर्व से नहीं कह सके कि हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है।
यहाँ याद आ रहे हैं विश्वकवि रवींद्रनाथ ठाकुर, जो महात्मा गाँधी के आमंत्रण पर अहिंदीभाषी राज्य गुजरात गए और वहाँ उनके अनुरोध पर अपना भाषण उन्होंने हिंदी में दिया। इसमें राष्ट्रपिता और विश्वकवि, दोनों का हिंदी के प्रति अनुराग झलकता है। राजगोपालाचारी की हार्दिक इच्छा थी कि आजाद भारत की राजभाषा का दर्जा हिंदी को तत्काल दे दिया जाए, लेकिन कभी-कभी कुछ लोगों के अनावश्यक भय और भूलें राष्ट्र पर भारी पड़ती हैं। स्वाधीन होने के बावजूद हम पिछलग्गू राष्ट्र की तरह जीते रहे। औपनिवेशिक दासता की मानसिकता ने देश को कहीं का न छोड़ा। राष्ट्रभाषा के प्रति सत्ता की संवेदनहीनता हमारी भाषाई दासता का सहज परिणाम है। यह बात हिंदी दिवस के संदर्भ में सहसा मन में कौंधी और कौंध गई रवींद्रनाथ ठाकुर की वे पंक्तियाँ भी, जो उन्होंने राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के गुजरात सम्मेलन में हिंदी में कही थीं, "इसमें कोई संशय नहीं कि हिंदी भाषा में गीत साहित्य का आविर्भाव हुआ, जो उसके गले में पड़ा अमरसभा का पुष्पहार है, पर आज अनादर के कारण उसका बहुत कुछ ढका हुआ है। इसका उद्धार आवश्यक है ताकि अहिंदीभाषी लोग भी भारत के इस चिरंतन साहित्य के उत्तराधिकार के गौरव के भागीदार बन सकें।"
सुब्रह्मण्य भारती मानते थे कि "भारत की एकता को यदि बनाकर रखा जा सकता है तो उसका माध्यम हिंदी ही हो सकती है।" उधर बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय कहते थे, "अपनी मातृभाषा बाला में लिखकर मैं बंगबंधु तो हो गया, लेकिन भारत बंधु तभी हो सकूँगा, जब भारत की राष्ट्रभाषा हिंदी में लिखूँगा।" मोरारजी देसाई भी कह गए हैं, "एक दिन देश में सबको हिंदी स्वीकार करनी पड़ेगी," लेकिन भूमंडलीकरण और उदारीकरण ने हमें पश्चिम की साम्राज्यवादी नीतियों के प्रसार का मोहरा बना दिया, जिसका परिणाम हम शिक्षा और संस्कृति पर स्थापित हो रहे उनके प्रभुत्व के रूप में देख रहे हैं। देश और दुनिया में आज कहीं भी अपनी संस्कृति और शिक्षा में स्वदेशी होने की बात नहीं की जा रही, सर्वत्र अमीर होने की बातें ही देशी-विदेशी विचारकों द्वारा कही और तीसरी दुनिया द्वारा सुनी जा रही हैं। विदेशी भाषाओं और संस्कृति में दीक्षित हो रहे हमारे बच्चे कुछ समय बाद लगते ही नहीं कि वे कहीं से भी हमारे हैं।
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