आखिरी मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर ने ने 25 अगस्त, 1857 को अपने देशवासियों से एक इश्तिहार के जरिये अपील की थी : "हिंदुस्तान के हिंदू और मुसलमान भाइयो, उठो। खुदा ने जितनी बरकतें इंसान को अता की हैं, उनमें सबसे क्रीमती बरकत आजादी है। वह जालिम फिरंगी, जिसने धोखा देकर हमसे यह बरकत छीन ली है, क्या हमेशा के लिए हमें उससे महरूम रख सकेगा? फ़िरंगियों ने इतने जुल्म किए हैं कि उनके गुनाहों का घड़ा अब लबरेज हो चुका है, यहाँ तक कि अब हमारे पाक मजहब को खत्म करने की नापाक ख्वाहिश भी उनमें पैदा हो गई है। क्या तुम अब भी ख़ामोश बैठे रहोगे ? ख़ुदा यह नहीं चाहता कि तुम खामोश रहो, क्योंकि ख़ुदा ने हिंदू-मुसलमानों के दिलों में अपने मुल्क से फ़िरंगियों को बाहर निकालने की ख़्वाहिश पैदा कर दी है। खुदा के फ़जल और तुम लोगों की बहादुरी से अंग्रेजों को इतनी कामिल शिकस्त मिलेगी कि हमारे मुल्क हिंदुस्तान में उनका नामोनिशान तक नहीं रह जाएगा।" कुछ ऐसी ही बातें देश के दूसरे भागों के क्रांतिकारियों ने भी उस समय कही और लिखीं। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने राजा मर्दान सिंह को अपने एक पत्र में लिखा था "आपकी, हमारी, शाहगढ़ के शाह और तात्या टोपे की जो सलाह हुई थी, हमारी यह राय बनी थी कि सुराज, अपना शासन होना चाहिए।" ऐसी अपीलों और सलाहों के सिलसिलेवार विवरणों से अब स्पष्ट हो गया है कि सन् 1857 की लड़ाई किन्हीं स्थानीय और तात्कालिक समस्याओं के समाधान के लिए नहीं छिड़ी थी, बल्कि उन लोगों के सामने अंग्रेजी शासन को जड़ से उखाड़ फेंकने का स्पष्ट लक्ष्य था और साथ में था हिंदुस्तान की स्वाधीनता का स्वप्न।
बहादुरशाह ज़फ़र को क्रांतिकारियों द्वारा 'शहंशाह-ए-हिंदुस्तान' घोषित करने का लक्ष्य फिर से निरंकुश शासन की बहाली न था, जबकि ज्यादातर पश्चिमी विचारकों और इतिहासकारों ने अपनी किताबों और लेखों में ऐसा ही कुछ निरूपित किया है। बहादुरशाह जफ़र को पूरे हिंदुस्तान का शहंशाह घोषित करने के बाद दिल्ली के लाल क़िले में क्रांतिकारियों ने प्रशासनिक न्यायालय की स्थापना की थी, जो सरकार और सेना को देश और जनता के प्रति जवाबदेह बनाता था, जिसके अंतर्गत दस सदस्यों की एक परिषद् गठित की गई थी, जिसमें बादशाह के चार और सेना के छह प्रतिनिधि शामिल थे। बहादुरशाह का काम इस समिति के फैसलों पर हस्ताक्षर करने तक सीमित था। सारे फ़ैसले बहुमत से होते थे। सेना का गठन भी आधुनिक प्रणाली को ध्यान में रखकर किया गया था, जिसमें कर्नल और जनरल जैसे पद बनाए गए थे। क्रांतिकारियों के दिमाग़ में एक सुविचारित वैकल्पिक शासन व्यवस्था का स्वप्न झिलमिला रहा था।
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