आज़ाद भारत के गणतंत्र में सात दशक पार कर आज हम कहाँ खड़े हैं? जिस तरह आ की समस्याएँ सामने हैं, उन्हें देखकर तो नहीं लगता कि स्वाधीनता संग्राम के दौरान आयी रुकावटों को हम बहुत पीछे छोड़ आए हैं। सही है कि हमने आजादी पा ली, लेकिन सोचिए जरा कि क्या हम पूरी तरह आजाद हो पाए हैं? जिस राष्ट्र राज्य की नींव सन् 1947 में रखी गई थी, उसमें जगह-जगह दरारें क्यों दिख रही हैं? जिस हिंसा के खिलाफ गाँधी जोवन भर लड़ते रहे और अंग्रेजों को देश से बाहर करने का अहिंसक अभियान शुरू करने का साहस जुटा लिया, वही हिंसा राष्ट्र के अंग-प्रत्यंग में नंग-नाच करती नहीं दिखती रही है क्या ? छुआछूत को मिटाकर समाज में समरसता लाने का जो सपना गाँधी ने देखा था, वह जगह-जगह से कटा-फटा क्यों लगता है? शिक्षा, संस्कृति और कर्म के बल पर एक समग्र भारतीय व्यक्तित्व के निर्माण की जो कामना हमारे नायकों ने की थी, आज वह पश्चिमी तौर-तरीकों के सामने खुद को कमतर क्यों पा रही है, क्या हम आज भी वहीं नहीं खड़े हैं, जहाँ से चले थे ? इन सवालों पर महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू, रवींद्रनाथ ठाकुर, बल्लभ भाई पटेल, भीमराव अंबेडकर और सुभाषचंद्र बोस के बीच तब भी बड़ी-बड़ी बहसें हुई थीं, जिनके कुछ हल भी निकले थे, जिनके आधार पर हमारे भारत राष्ट्र राज्य का भवन खड़ा हुआ, लेकिन वह भवन लगातार इतना जीर्ण-शीर्ण क्यों दिखता रहा है?
आधुनिक भारत के निर्माताओं में गाँधी-नेहरू-पटेल का नाम सर्वोपरि है। गाँधी इसलिए कि वे स्वाधीनता आंदोलन के महानायक थे और नेहरू इसलिए कि देश के पहले प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने स्वातंत्र्य पूर्व देखे गए गाँधी के सपनों को साकार करने की कोशिश की। सच है कि गाँधी ने नेहरू को उत्तराधिकारी चुना था, लेकिन क्या उन्होंने गाँधी के सपनों को साकार किया ? स्पष्ट जवाब 'नहीं' में है, लेकिन गाँधी के सपनों को सरदार पटेल साकार कर सकते थे, ठीक वैसे ही, जैसे पाँच सौ पैंसठ रजवाड़ों को युक्तिपूर्वक जोड़कर उन्होंने भारतीय राष्ट्र-राज्य की मजबूत आधारशिला रखी। रवींद्रनाथ ठाकुर मूलतः सर्जक थे, इसलिए उनकी दृष्टि एक सौंदर्यवादी की दृष्टि थी। श्रीकृष्ण जैसे सर्वगुण संपन्न भारतीय व्यक्तित्व के निर्माण की उनकी अपनी परिकल्पना थी, लेकिन वे गाँधी के विचारों से प्रभावित रहे और गाँधी भी उनसे प्रभावित हुए, यह सब बातें अपनी जगह सही हैं, लेकिन मुख्य मुद्दा भारत के सामाजिक बिखराव और सांस्कृतिक पतन को रोकने का है। दलित बनाम सवर्ण मुद्दे पर जिस तरह के नारे गत वर्षों में उछाले गए, उनसे भारतीय समाज में एकता की बजाय बिखराव की आशंकाएँ प्रबल होती दिख रही हैं।
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