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समकालीन भारतीय साहित्य- साहित्य अकादेमी की द्वैमासिक पत्रिका वर्ष 40 अंक 204 (जुलाई-अगस्त 2019): Contemporary Indian Literature- Bimonthly Magazine of Sahitya Akademi Year 40 Issue 204 (July-August 2019)

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Item Code: HBA370
Author: Edited By Brijendra Tripathi
Publisher: SAHITYA AKADEMI
Language: Hindi
Edition: 2019
Pages: 200
Cover: PAPERBACK
Other Details 9x6 inch
Weight 340 gm
Book Description
संपादकीय

पिछली सदी के अंतिम चरण में हमारे समक्ष कई नए विमर्श उभरकर सामने आए। जो समस्याएँ प्रसुप्त अवस्था में थीं, वे सामाजिक, राजनीतिक और मानवीय परिस्थितियों के कारण उभरकर सामने आने लगीं। आज का दौर विमर्शों का दौर है वैश्विक स्तर पर तमाम तरह के विमर्श चल रहे हैं और उनका उद्देश्य मानवीय चेतना को उदात्त बनाना है। इन विमर्शों में दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, आदिवासी विमर्श, पर्यावरण विमर्श, वार्धक्य विमर्श प्रमुख हैं। इनमें दलित, स्त्री और आदिवासी विमर्श अधिक चर्चित हैं।

हाल के वर्षों में आदिवासी विमर्श बड़े ही ज्वलंत रूप से उभरकर सामने आया है। स्त्रियों और दलितों की तरह आदिवासियों की भी अपनी समस्याएँ और जटिल जीवन स्थितियाँ हैं। अब आदिवासी विमर्श हाशिए से हटकर मुख्यधारा में आ गया है। आदिवासी समाज को देखें तो पाएँगे कि यह समाज तिरस्कृत, वंचित और पीड़ित रहा है। इनके विकास के लिए प्रशासन की ओर से बहुत कम प्रयास हुए हैं, अतः इनकी समस्याओं में लगातार इजाफ़ा ही हुआ है, लेकिन इस समाज में भी अब जागरूकता आई है और यह अपनी समस्याओं और मुद्दों को लेकर सामने आने लगा है।

हमारा देश एक बहुभाषा-भाषी राष्ट्र है। हमारे यहाँ सांस्कृतिक विविधता के साथ भाषाई विविधता भी है। 1961 की जनगणना के अनुसार भारत में कुल 1650 भाषाएँ रही हैं। एक आँकड़े के अनुसार पिछले 50-60 सालों में 250 भाषाएँ विलुप्त हो चुकी हैं और इनमें से कई विलुप्त होने के खतरे का सामना कर रही हैं। आज भारत में 400 से अधिक भाषाएँ आदिवासी और घुमंतू एवं गैर अधिसूचित जनजातियों द्वारा बोली जाती हैं। इनमें से कई भाषाएँ ऐसी हैं, जिनके बोलनेवालों की संख्या दर्जनभर भी नहीं है। जाहिर है कि बहुत सी जनजातीय भाषाएँ लुप्त होने के कगार पर हैं और इन्हें संरक्षण की आवश्यकता है। विगत चार-पाँच दशकों से ये जनजातियाँ अपनी भाषाओं को बचाने की दिशा में प्रयत्नशील हुई हैं। पूर्वोत्तर भारत में इस दिशा में पर्याप्त जागरूकता है। कुछ संस्थाएँ भी जनजातीय भाषाओं पर महत्त्वपूर्ण कार्य कर रही हैं।

मध्यप्रदेश और राजस्थान ऐसे दो बड़े राज्य हैं, जहाँ जनजातीय लोग बड़ी संख्या में हैं। राजस्थान में भीली और सहरिया मुख्य आदिवासी भाषाएँ हैं। इनकी लिपि देवनागरी है। मध्यप्रदेश में भील, गोंड, कोल, कोरकू, सहरिया, बैगा, भारिया, उराँव आदि 43 जनजातीय समूह रहते हैं। इनमें भील समूह में भीली, भिलाली, बारेली, पटलिया, गोंड समूह में गोंडी के विभिन्न रूप और कोरकू समूह में कोरकू, भवासी, निहाली आदि बोलियाँ प्रचलित हैं। विविध कारण हैं, जिनके चलते इन बोलियों का प्रयोग कम होता जा रहा है। जनजातियों की नई पीढ़ी अपनी मातृभाषा का कम प्रयोग करने लगी है, जिससे बोलनेवालों की संख्या लगातार कम होती जा रही है। यह एक विचारणीय प्रश्न है कि इन संकटग्रस्त भाषाओं को कैसे बचाया जाए?

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