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समकालीन भारतीय साहित्य- साहित्य अकादेमी की द्वैमासिक पत्रिका वर्ष 37 अंक 191 (मई-जून 2017): Contemporary Indian Literature- Bimonthly Magazine of Sahitya Akademi Year 37 Issue 191 (May-June 2017)

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Item Code: HBA543
Author: Edited By Ranjit Saha
Publisher: SAHITYA AKADEMI
Language: Hindi
Edition: 2017
Pages: 216
Cover: PAPERBACK
Other Details 9x6 inch
Weight 364 gm
Book Description
संपादकीय

साहित्य अकादेमी पुरस्कार और अकादेमी की महत्तर सदस्यता प्राप्त अमृतलाल नागर जी (17.8.1916-23.2.1990) हिंदी साहित्य के महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। उनका जन्म 17 अगस्त, 1916 को तेरह पीढ़ियों से उत्तर प्रदेश में बसे आगरा के एक गुजराती परिवार में हुआ। युवा अमृत को अपना रास्ता बनाने के लिए जीवन में अनेक संघर्ष करना पड़ा। कुछ वर्ष फ़िल्म उद्योग में रहने और आकाशवाणी की नौकरी करने के बाद उन्होंने तय किया कि वे अपने को सर्जनात्मक साहित्य को समर्पित कर देंगे और ऐसा किया भी।

नागर जी तब मुश्किल से तेरह वर्ष के रहे होंगे, जब साइमन कमीशन के विरुद्ध अहिंसक प्रदर्शनकारियों पर सरकार द्वारा किए गए अत्याचारों को लेकर उनकी प्रतिक्रिया एक कविता के रूप में फूट पड़ी। बाद में वे कथा लेखन की तरफ मुड़े। उनकी पहली कहानी 'प्रायश्चित्त' पंद्रह वर्ष की उम्र में छपी और उन्नीस वर्ष में पहला कहानी संग्रह वाटिका नाम से प्रकाशित हुआ। समाज की हास्यास्पद स्थितियों और विसंगतियों ने उन्हें 'चकल्लस' (साप्ताहिक) के प्रकाशन की प्रेरणा दी। हालाँकि साहित्यिक हलकों में धूम मचाकर यह पत्रिका जल्द ही दिवंगत हो गई। लेकिन सहज वाग्वैदग्ध्य और तीखी व्यंग्योक्तियों के कारण नागर जी ने पर्याप्त ख्याति अर्जित की। इसी विधा में उन्होंने नवाबी मसनद, सेठ बाँकेमल, कृपया दायें चलिए और हम फ़िदाये लखनऊ जैसी हास्य व्यंग्यात्मक कृतियों की सर्जना की।

नागर जी ने स्वाध्याय को अपना अध्यवसाय बनाते हुए भारतीय गौरव ग्रंथों के साथ मोपासाँ, फ्लाबेयर और चेखव-जैसे पश्चिमी कथाकारों की कृतियाँ पढ़ीं और उनमें से कुछ का हिंदी अनुवाद भी किया। बाद में उन्होंने भारतीय लेखकों में विष्णु भट्ट गोडसे के माझा प्रवास और क. मा. मुंशी के तीन लघु नाटकों का गुजराती से हिंदी में अनुवाद किया। इतिहास, पुरातत्त्व और साहित्य के चलते उनकी दृष्टि किसी अन्वेषक जैसी पैनी हो गई थी। अपने चारों तरफ की जिंदगी ने उन्हें निरंतर आंदोलित किया। भयंकर अकाल से त्रस्त और तब लाखों लोगों की भुखमरी झेलते बंगाल की अमानवीय पृष्ठभूमि में उन्होंने अपना पहला उपन्यास महाकाल (1947) लिखा, जिसमें भूख से जूझते मनुष्य के भ्रष्ट समाज के आचरण की त्रासद गाथा है। बाद में यह उपन्यास भूख (1970) शीर्षक से छपा। कथाकार के रूप में प्रतिष्ठित हो जाने पर नागर जी ने बारह उपन्यासों की रचना की और इस विधा की प्रतिष्ठा में अभिवृद्धि की। उनका बूँद और समुद्र (1956) उपन्यास सामाजिक यथार्थ पर अपनी पकड़ और मध्यवर्ग को आंदोलित करनेवाले मनोभावों के चित्रण के लिए सराहा गया।

नागर जी ने ऐतिहासिक उपन्यास में व्याप्त इतिहास की व्याख्या सामाजिक प्रासंगिकता के परिप्रेक्ष्य में की। शतरंज के मोहरे (1959) में उन्नीसवीं शताब्दी के लखनऊ के पूर्व गौरव के साथ पतनशील ह्रास की कहानी है। सुहाग के नूपुर (1960) इलंगो अडिगल के शिलप्पदिकारम् पर आधारित है, जो दो हज़ार वर्ष पूर्व की कथा है।

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