हिंदी का परिसर केवल भारत तक सीमित नहीं है, दुनिया के अनेक देशों में इसे बोलने, समझने और पढ़ने वाले हैं। वोलियों और भाषा-सम्मिश्रों के माध्यम से यह कई देशों की मुख्य भाषा भी है। परंतु हिंदी की मुख्य भूमि के अनेक लेखकों, बुद्धिजीवियों ने प्रायः इस उदारता और विस्तार को विचारधाराओं के शिविरों में सीमित और संकुचित किया है, जबकि एक बड़ी भाषा को अपने पूरे व्यवहार में बड़ा होना होता है और उसकी संपूर्ण समृद्धि को प्रस्तुत करना होता है।
अकसर कहा जाता है कि हिंदी में अच्छी आलोचना बहुत कम लिखी जाती है। कैसे लिखी जाएगी? उसे अपने विकास के लिए खुला आसमान और पर्यावरण चाहिए। क्या यह प्रायः होने दिया गया है? हिंदी के सर्जनात्मक लेखन के साथ भी कमोबेश यह समस्या है, पर उसकी एक विशेषता है कि वह विचारधाराओं से उस तरह नहीं बँधता, जिस तरह आलोचना और विचार बँधता है। यही कारण है कि दुनिया भर से तरह-तरह के वादों के इतने रेले आए और उन्होंने यत्किंचित् प्रभावित भी किया पर वे हिंदी की सर्जना को बाँध नहीं सके। उसने अपनी मौलिकता और स्वतंत्रता को बचाए रखा और खुलकर बहुविध अभिव्यक्ति की। फिर भी यदि हिंदी साहित्य इतना समृद्ध नहीं दिखता तो इसलिए कि लेखन की विविधता और एक लेखक के सभी पक्षों को पाठक के सम्मुख आने से भरसक रोका गया और बराबर यह पाठ पढ़ाया जाता रहा कि वे क्या पढ़ें और क्या न पढ़ें? इसी के चलते कई लेखक ठीक से प्रकाश में नहीं आए और बहुत-सा महत्त्वपूर्ण साहित्य अँधेरा भोगता रहा और भोग रहा है। हिंदी की पाठकीयता को इसी कारण साहित्य और भाषा की पूरी समृद्धि के आनंद से वंचित रहना पड़ा। अकारण एक बड़ा साहित्य बोन्साईकरण का शिकार हुआ। परंतु फिर भी यह अच्छा ही हुआ कि लेखकों ने कटघरों की परवाह न कर अपनी चेतना और सर्जनात्मकता के लिए पूरे दरवाजे खुले रखे।
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