साहित्य समय की फोटोग्राफी नहीं, पेंटिंग है, जिसमें रचनाकार की परिकल्पना, प्रतिभा, दृष्टि, शिल्प, प्रयोजन आदि शामिल होते हैं। इस दृष्टि से लेखक वस्तु जगत या देशकाल का विस्तार और परिमार्जन करता है और पाठक को दृष्टि भी देता है। यहीं प्राप्त और प्राप्तव्य का वह अंतर उजागर होता है जो लेखक का अपना हस्तक्षेप है, दूसरे शब्दों में जो लेखक के होने की सार्थकता है। इसलिए साहित्य में समय की शक्ल देखना चाहना न केवल अपने युग-चेता होने को देखना है-बल्कि अपने आत्म-चेतस होने को भी देखना है।
'वस्तु' को देखना और साहित्य में 'वस्तु' को देखना दो भिन्न बातें हैं क्योंकि वहाँ हम दृश्य जगत की अंतरंग, अदृश्य शिराओं को भी देख सकते हैं और आत्म-बिंब को भी, जो त्वचा-अस्थि के किसी अपारदर्शी तल में छिपा है; ऐसे में हम जीवन में अपने होने की अर्थवत्ता का अन्वेषण भी कर सकते हैं। चित्र में उकेरी छवियाँ अपने रूपाकार की बजाए, चरित्र, स्वभाव, लब्धियों को चित्रों, रंगों और रेखाओं में संकेतित करती हैं। वृहत्तर रूप में हम इन्हें साहित्य और समय या मनुष्य और साहित्य के संबंध कह सकते हैं। यह बात कुछ-कुछ अमूर्त कला से मिलती-जुलती है, जो न केवल कलाकार की आत्माभिव्यक्ति है, वह पाठक या दर्शक को, स्वयं को देखने या अपने ढंग से विवेचित करने की स्वाधीनता देती है। उत्तर आधुनिक विमर्श में पाठ की अवधारणा और विविध संस्करण संभवतः इसी अमूर्त कलाकृति की अगली कड़ी है। हर पाठ एक दृष्टि है। इसी बात को हम यदि साहित्य-विवेचन के अतीत में ले जाएँ तो यह पुरानी टीका या भाष्य-भेदों, परवर्ती आलोचना-भेदों में लक्षित की जा सकती है। अन्यथा कालिदास की अनेक टीकाएँ या शेक्सपीयर और तुलसीदास पर ढेरों आलोचनाएँ क्यों होतीं ? सबको यदि पुनरावृत्तियाँ ही करनी हैं तो नई टीका या आलोचना क्यों लिखी जाती ?
साहित्य के पाठक के लिए एक समस्या उसकी जटिलता को लेकर है। जब हम साहित्य को फोटोग्राफी की जगह पेंटिंग कहते हैं तो स्वयमेव उसकी बहुआयामिता, जटिलता और संश्लिष्टता को स्वीकार कर लेते हैं। रचना, रचना तभी होती है जब किसी लेखक का पूरा बौद्धिक, मानसिक और संवेदन-जगत उसमें सक्रिय होता है, परंतु प्रश्न है कि इससे जटिलता का क्या संबंध है? अगर है भी तो लेखक को अपने स्तर पर इससे निपटना चाहिए।
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