पुस्तक के विषय में
ज्ञानपीठ पुरस्कार (1965-2010)
ज्ञानपीठ पुरस्कार देश के सर्वोच्च साहित्य सम्मान के रूप में प्रतिष्ठित है। प्रति वर्ष दिया जाने वाला यह सम्मान भारतीय साहित्य की समवेत दृष्टि और राष्ट्रीय एकता का प्रतीक बन गया है। वर्तमान में संविधान की आठवीं अनुसूची में परिगणित 22 भाषाओं में से प्रतिवर्ष किसी एक भाषा के सर्वश्रेष्ठ लेखक को भारतीय साहित्य में उसके समग्र योगदान के लिए यह पुरस्कार दिया जाता है । अब तक 50 साहित्यकार इस पुरस्कार से सम्मानित हो चुके हैं।
देश भर के लेखक, बुद्धिजीवी और पाठक सिर्फ अपनी भाषा के यशस्वी लेखकों को ही नहीं, बल्कि ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित अन्य भारतीय भाषाओं के लेखकों को भी जानना चाहते हैं। इसी बात को ध्यान में रखकर भारतीय ज्ञानपीठ ने 1991 में इस पुस्तक का पहला संस्करण प्रकाशित किया था । नये आकार और कलेवर में प्रस्तुत इस परिवर्द्धित संस्करण में अब 2010 तक के ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित साहित्यकार शामिल हैं ।
जिज्ञासु पाठकों एवं शोधकर्ताओं के लिए बहुत उपयोगी ।
प्रस्तुति
ज्ञानपीठ पुरस्कार भारतीय भाषाओं में दिया जाने वाला सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान है । इस पुरस्कार की प्रतिष्ठा और अखिल भारतीयता लगातार बढ़ती जा रही है । तमाम भारतीय भाषाओं की असन्दिग्ध और असीमित आस्था इस पुरस्कार में निहित है । सिर्फ देश में ही नहीं विदेशों में भी, ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित साहित्यकार को अत्यन्त आदर की दृष्टि से देखा जाता है। किसी भी पुरस्कार की यह ऊँचाई अपने आप में एक गौरव का विषय है और इस गौरव की निर्मिति में भारतीय ज्ञानपीठ की सक्रिय भूमिका रही है, यह सोचते हुए हमें सन्तोष मिल रहा है ।
देश भर के जागरूक पाठक ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लेखकों के बारे में जानना चाहते हैं। इसी सोच के तहत 1991 में 'ज्ञानपीठ पुरस्कार' का प्रकाशन किया गया, जिसमें 1965 से 1990 तक के पुरस्कृत लेखकों का परिचय था । दूसरे संस्करण में पुरस्कृत लेखकों का क्रम 2002 तक पहुँचा और अब इस नवीन संस्करण में 2010 तक के 51 पुरस्कृत साहित्यकारों को सम्मिलित किया गया है । पाँच बार दो-दो साहित्यकार सह-सम्मानित हुए ।
हमें विश्वास है कि 47वें ज्ञानपीठ पुरस्कार समारोह के अवसर पर प्रकाशित यह बहुप्रतीक्षित पुस्तक सभी हिन्दी पाठकों को आकर्षित करेगी ।
प्रथम संस्करण से
ज्ञानपीठ पुरस्कार अम्माजी, श्रीमती रमा जैन, का मानसपुत्र है। उनकी यह धारणा थी कि भारत में भले ही अलग- अलग भाषाएँ हों लेकिन उन भाषाओं के साहित्य में उठनेवाली मिट्टी की गन्ध एक ही है । वे उस गन्ध को तलाश कर उसे सम्मानित करना चाहती थीं । कहा गया कि यह कार्य अत्यन्त कठिन और जटिल होगा । पर अम्मा जी और बाबू जी, श्री साहू शान्ति प्रसाद जैन, ने योजना को कार्यान्वित करने के लिए साहित्य मनीषियो और साहित्यकारों से देश-व्यापी विचार-विनिमय किया । इसमें समय तो लगा पर योजना का एक व्यावहारिक रूप निकल आया। पिछले 25 वर्षों के अनुभव से यह स्पष्ट है कि चयन-प्रक्रिया में साहित्य-प्रेमियों की व्यापक भागीदारी, सूक्ष्म-विश्लेषण व निरीक्षण और वस्तुपरक निष्पक्षता से सन्तोषजनक परिणाम निकले हैं ।
भारतीय भाषाओं के किसी एक चुने हुए शीर्षस्थ साहित्यकार को प्रति वर्ष दिये जाने वाले ज्ञानपीठ पुरस्कार का अनूठापन इसमें है कि यह भारतीय साहित्य में एक सेतु का कार्य करने के साथ-साथ हमारे साहित्य के मापदण्डों की में भी सक्रिय भूमिका निभा रहा है । विभिन्न भाषाओं के लेखकों को सम-सामयिक भारतीय साहित्य की पृष्ठभूमि में परखकर उन्हें अपने सीमित भाषाई क्षेत्र से बाहर लाने में ज्ञानपीठ पुरस्कार ने अद्भुत सफलता पायी है । भारतीय ज्ञानपीठ को इस बात का सन्तोष है कि साहित्य के माध्यम से राष्ट्र की भावात्मक एकता को सुदृढ़ करने में इसका महत्वपूर्ण योगदान रहा है ।
इस पुरस्कार के पीछे देश के अनेक साहित्यकारों और प्रबुद्ध पाठकों का सद्भाव है । उन सबके प्रति मेरा हार्दिक आभार ।
सम्पादकीय
भारतीय संस्कृति, विद्या और मौलिक साहित्य के विकास, अध्ययन, शोध और प्रोत्साहन को दृष्टिगत रखते हुए 18 फरवरी, 1944 को भारतीय ज्ञानपीठ की स्थापना हुई थी । 1965 में संविधान की 8वीं अनुसूची में परिगणित किसी भी भाषा के उत्कृष्ट सृजनात्मक साहित्य के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार की स्थापना की गयी । पुरस्कार के लिए विभिन्न भारतीय भाषाओं की परामर्श समितियों का गठन किया गया, जिनकी सिफारिशें प्रवर-परिषद् (निर्णायक मडल) के पास भेजी जाती हैं, ताकि पुरस्कार हेतु सुविचारित पर्यालोचन एवं निष्पक्ष चयन सम्भव हो सके।
सन् 1965 से वर्ष 2010 तक 51 रचनाकार ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित हो चुके हैं । बढ़ते-बढ़ते आज ज्ञानपीठ पुरस्कार की राशि भी 11 लाख रुपये हो गयी है । निर्विवाद रूप से आज ज्ञानपीठ पुरस्कार भारत का सबसे प्रतिष्ठित और विश्वस्तरीय पुरस्कार माना जाता है । कुछ लोग इसे भारत का 'नोबेल पुरस्कार' भी कहते हैं । ज्ञानपीठ पुरस्कार पर प्रथम पुस्तक 1991 में प्रकाशित हुई थी । इसके बाद अद्यतन जानकारी देने के लिए 2005 में इसका संवर्द्धित संस्करण प्रकाशित हुआ । तत्पश्चात् पुन: प्रकाशित हो रहे इस नवीन संस्करण में 1995 से 2010 तक के ज्ञानपीठ पुरस्कृत साहित्यकारों को सम्मिलित किया गया है । यह पुस्तक बहुत समय से प्राप्य नहीं थी । इसकी माँग को देखते हुए 47वें ज्ञानपीठ पुरस्कार समारोह के अवसर पर यह नया संस्करण पाठकों को उपलब्ध कराते हुए हमें प्रसन्नता हो रही है ।
आशा है, इस बहु-प्रतिष्ठित संस्करण से पाठक लाभान्वित होंगे ।
ज्ञानपीठ पुरस्कार
22 मई, 1961 को भारतीय ज्ञानपीठ के संस्थापक श्री साहू शान्ति प्रसाद जैन के पचासवें जन्मदिन के अवसर पर उनके परिवार के सदस्यों के मन में यह विचार आया कि साहित्यिक या सांस्कृतिक क्षेत्र में किसी ऐसी महत्त्वपूर्ण योजना का प्रवर्तन किया जाए जो राष्ट्रीय गौरव तथा अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिमान के अनुरूप हो । इस विचार के अनुसरण में 16 सितम्बर, 1961 को जब भारतीय ज्ञानपीठ के न्यासि-मण्डल की बैठक में अन्यान्य भारतीय भाषाओं की उत्कृष्ट रचनाओं के हिन्दी अनुवाद प्रकाशित करने के उद्देश्य से स्थापित राष्ट्रभारती ग्रन्थमाला पर विचार चल रहा था, तब ज्ञानपीठ की संस्थापक अध्यक्ष श्रीमती रमा जैन ने यह प्रश्न उठाया कि क्या यह सम्भव है कि हम भारतीय भाषाओं में प्रकाशित रचनाओं में से सर्वश्रेष्ठ पुस्तक चुन सकें जिसे एक वृहत् पुरस्कार दिया जाए? इस विचार को व्यावहारिक रूप देने की पहल भी श्रीमती रमा जैन ने की । उन्होंने इसके लिए कुछ साहित्यकारों को 22 नवम्बर, 1961 को कोलकाता में अपने निवास पर आमन्त्रित किया । सर्वश्री काका कालेलकर, हरिवंशराय 'बच्चन', रामधारी सिंह 'दिनकर', जैनेन्द्र कुमार, जगदीशचन्द्र माथुर, प्रभाकर माचवे, अक्षय कुमार जैन और लक्ष्मीचन्द्र जैन ने इस परिकल्पना के विभिन्न पहलुओं पर विचार किया । दो दिन बाद साहू शान्ति प्रसाद जैन ने तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के समक्ष इस योजना का प्रारम्भिक रूप प्रस्तुत किया, जिन्होंने इसकी सराहना की और इसके कार्यान्वयन में सहयोग का आश्वासन दिया ।
इसके बाद विभिन्न भाषाओं के साहित्यकारों से विचार-विमर्श हुआ । 6 दिसम्बर, 1961 को कोलकाता के प्रमुख बांग्ला साहित्यकारों और समीक्षकों ने भी इस पुरस्कार-योजना पर विचार-विनिमयकिया । 1 जनवरी, 1962 को कोलकाता में अखिल भारतीय गुजराती साहित्य परिषद् और भारतीय भाषा परिषद् के वार्षिक अधिवेशनों में भाग लेने वाले 72 साहित्यकारों से सम्मिलित रूप से परामर्श किया गया । इसी बीच योजना की लगभग चार हजार प्रतियाँ देश की विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं और साहित्यकारों को उनकी प्रतिक्रिया जानने के लिए भेजी गयीं ।
योजना को अन्तिम रूप देने के लिए 2 अप्रैल, 1962 को दिल्ली में भारतीय ज्ञानपीठ और टाइम्स ऑफ इण्डिया के संयुक्त तत्त्वावधान में एक वृहद् विचार-गोष्ठी का आयोजन हुआ जिसमें देश की सभी भाषाओं के लगभग 300 मूर्धन्य साहित्यकारों ने भाग लिया । इसके दो सत्रों की अध्यक्षता डॉ. वी. राघवन् और श्री भगवतीचरण वर्मा ने की और इसका संचालन डॉ. धर्मवीर भारती ने किया । सर्वश्री काका कालेलकर, हरेकृष्ण मेहताब, निसीम इजेकिल, डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी, डॉ. मुल्कराज आनन्द, सुरेन्द्र मोहन्ती, देवेश दास, सियारामशरण गुप्त, रामधारी सिंह ' दिनकर ', उदयशंकर भट्ट, जगदीशचन्द्र माथुर, डॉ. नगेन्द्र, डॉ. डी. आर. बेन्द्रे, जैनेन्द्र कुमार, मन्मथनाथ गुप्त, लक्ष्मीचन्द्र जैन आदि प्रख्यात मनीषी विद्वानों ने इस गोष्ठी में भाग लिया ।
योजना की कार्यान्विति के लिए डॉ. राजेन्द्र प्रसाद से ज्ञानपीठ पुरस्कार की प्रवर परिषद् की अध्यक्षता ग्रहण करने का अनुरोध किया गया । प्रवर परिषद् की पहली बैठक की तिथि 16 मार्च, 1963 राजेन्द्र बाबू ने निश्चित की, जिसकी अध्यक्षता वे स्वयं करते, पर दुर्भाग्य से इस तिथि से पहले ही उनका देहावसान हो गया । वह बैठक काका कालेलकर की अध्यक्षता में हुई और फिर उसके बाद प्रवर परिषद की अध्यक्षता डॉ. सम्पूर्णानन्द ने की ।
विभिन्न भाषाओं में से एक सर्वोत्कृष्ट कृति (जैसा कि पहले सत्रह पुरस्कारों तक का नियम था) या साहित्यकार (जैसा कि अठारहवें पुरस्कार से परिवर्तित नियम है) के चयन का कार्य अत्यन्त कठिन और जटिल है । जब एक ही भाषा की सर्वोत्कृष्ट कृति या लेखक का चयन करने में कठिनाई होती है और कभी-कभी मतभेद या तर्क-वितर्क हो जाते हैं तब पन्द्रह या उससे अधिक भाषाओं में से एक कृति या साहित्यकार की खोज कितनी दुष्कर होगी । ऐसेविद्वानों और साहित्यकारों का मिलना क्या असम्भव-सा नहीं होगा जो कई भाषाओं के मर्मज्ञ हों?
फिर भी विगत वर्षो के अनुभव से यह सिद्ध हुआ है कि सत्संकल्प और वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण पर आधारित प्रक्रिया ने इस चुनौती- भरे कार्य को भी सम्भव बनाया है । सारी प्रक्रिया का आरम्भ विभिन्न भाषाओं के साहित्यकारों, अध्यापकों, समालोचकों और प्रबुद्ध पाठकों से, विश्वविद्यालयों, साहित्यिक तथा भाषायी संस्थाओं से भी, प्रस्ताव भेजने का अनुरोध करने के साथ होता है । (नियमों के अनुसार, जिस भाषा को पुरस्कार मिल रहा हो उस पर अगले तीन वर्ष तक विचार नहीं किया जाता । इस प्रकार प्रति वर्ष तीन भाषाओं पर विचार नहीं किया जाता ।)
हर भाषा की एक ऐसी परामर्श समिति है जिसमें तीन विख्यात साहित्य-समालोचक और विद्वान् सदस्य होते हैं । इन समितियों का गठन तीन-तीन वर्ष के लिए होता है । प्राप्त प्रस्ताव सम्बन्धित ' भाषा परामर्श समिति ' द्वारा जाँचे जाते हैं । भाषा-समितियों पर यह प्रतिबन्ध नहीं है कि वे अपना विचार-विमर्श प्राप्त प्रस्तावों तक सीमित रखें । उन्हें किसी भी लेखक पर विचार करने की पूरी स्वतन्त्रता है । वास्तव में प्रवर परिषद् उनसे अपेक्षा करती है कि सम्बद्ध भाषा का कोई भी पुरस्कार-योग्य साहित्यकार विचार-परिधि से बाहर न रह जाए । किसी साहित्यकार पर विचार करते समय भाषा-समिति को उसके सम्पूर्ण कृतित्व का मूल्यांकन तो करना ही होता है, साथ ही समसामयिक भारतीय साहित्य की पृष्ठभूमि में भी उसको परखना होता है । अट्ठाईसवें पुरस्कार से नियम में किये गए संशोधन के अनुसार, पुरस्कार-वर्ष छोड्कर पिछले बीस वर्ष की अवधि में प्रकाशित कृतियों के आधार पर लेखक का मूल्यांकन किया जाता
भाषा परामर्श समितियों की अनुशंसाएँ प्रवर परिषद् के समक्ष प्रस्तुत की जाती हैं । प्रवर परिषद् में कम-से-कम सात और अधिक से अधिक ग्यारह सदस्य होते हैं, जिनकी ख्याति और विश्वसनीयता उच्च कोटि की होती है ।
आरम्भ में प्रवर परिषद् का गठन भारतीय ज्ञानपीठ के न्यासि- मण्डल द्वारा किया गया था, तदनन्तर रिक्तियों की पूर्ति परिषद् कीसंस्तुति पर ही होती आ रही है । प्रत्येक सदस्य का कार्यकाल तीन वर्ष का होता है, पर वह दो बार और बढ़ाया जा सकता है । वर्तमान अध्यक्ष डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी स्वयं एक सुपरिचित विधिवेत्ता, राजनयिक, चिन्तक और लेखक हैं । इससे पूर्व काका कालेलकर, डॉ. सम्पूर्णानन्द, डॉ. बी. गोपाल रेही, डॉ. कर्ण सिंह, श्री पी.वी. नरसिंह राव, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ. आर. के. दासगुप्ता, डॉ. विनायक कृष्ण गोकाक, डॉ. उमाशंकर जोशी, डॉ. मसूद हुसैन, प्रो. एम.वी. राजाध्यक्ष, डॉ. आदित्यनाथ झा, श्री जगदीशचन्द्र माथुर सदृश विद्वान् और साहित्यकार इस परिषद् के अध्यक्ष या सदस्य रहे हैं ।
प्रवर परिषद् भाषा परामर्श समितियों की संस्तुतियों का तुलनात्मक मूल्यांकन करती है । प्रवर परिषद् के सुचिन्तित पर्यालोचन के फलस्वरूप ही पुरस्कार के लिए किसी साहित्यकार का अन्तिम चयन होता है । इस चयन का पूरा दायित्व प्रवर परिषद् का है । भारतीय ज्ञानपीठ के न्यासि-मण्डल का इसमें कोई हाथ नहीं होता । प्रसन्नता इस बात की है कि इस कष्टसाध्य प्रक्रिया को व्यापक समर्थन प्राप्त हुआ है और पुरस्कार के चयनों को सभी ने सराहा है । यही कारण है कि ' ज्ञानपीठ पुरस्कार ' भारतीय साहित्य में सबसे अधिक प्रतिष्ठित सम्मान माना जाता है । वास्तव में यह पुरस्कार भारतीय साहित्य की समेकित साहित्य दृष्टि और राष्ट्रीय एकता का प्रतीक बन गया है ।
सन् 1965 से अब तक प्र वर्षो की अवधि में 41 साहित्यकार पुरस्कृत हो चुके हैं । तीन बार दो-दो साहित्यकार संयुक्त रूप से पुरस्कृत हुए । यह पुरस्कार अब तक कन्नड को सात बार, हिन्दी को छह बार, बांग्ला को पांच बार, मलयालम को चार बार, उड़िया, उर्दू और गुजराती को तीन-तीन बार, असमिया, मराठी, तेलुगु पंजाबी और तमिल को दो-दो बार प्राप्त हो चुका है ।
अनुक्रम
1
गोविन्द शंकर कुरुप
17
2
ताराशंकर बन्धोपाध्याय
47
3
उमाशंकर जोशी
57
कु. वें. पुट्टप्प
71
4
सुमित्रानन्दन पन्त
89
5
फ़िराक़ गोरखपुरी
109
6
विश्वनाथ सत्यनारायण
131
7
विष्णु दे
153
8
रामधारी सिंह 'दिनकर'
173
9
द. रा. बेन्द्रे
189
गोपीनाथ महान्ती
203
10
वि. स. खाण्डेकर
219
11
पी. वी. अखिलन्दम्
237
12
आशापूर्णा देवी
251
13
के. शिवराम कारन्त
269
14
अज्ञेय
285
15
बीरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य
305
16
शं. कु. पोट्टेक्काट
317
अमृता प्रीतम
331
18
महादेवी वर्मा
347
19
मास्ति वें. अथ्यंगार
365
20
तकषी शिवशंकर पिल्लै
389
21
पन्नालाल पटेल
409
22
सच्चिदानन्द राउतराय
425
23
वि. वा. शिरवाडकर 'कुसुमाग्रज'
445
24
सि. नारायण रेड्डी
463
25
कुर्रतुलऐन हैदर
483
26
विनायक कृष्ण गोकाक
497
27
सुभाष मुखोपाध्याय
515
28
नरेश मेहता
531
29
सीताकान्त महापात्र
543
30
यू. आर. अनन्तमूर्ति
563
31
एम. टी. वासुदेवन नायर
579
32
महाश्वेता देवी
595
33
अली सरदार जाफ़री
607
34
गिरीश कार्नाड
629
35
निर्मल वर्मा
637
गुरदयाल सिंह
649
36
इन्दिरा गोस्वामी
659
37
राजेन्द्र शाह
673
38
डी. जयकान्तन
683
39
विंदा करंदीकर
691
40
रहमान राही
709
41
कुँवर नारायण
727
42
सत्यव्रत शास्त्री
739
रवीन्द्र केलेकर
767
43
ओ. एन. वी. कुरुप
785
44
शहरयार
801
45
श्रीलाल शुक्ल
815
अमरकान्त
845
46
चन्द्रशेखर कंबार
857
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