पुस्तक के विषय में
भारत में पहली रेल 1853 में 16 अप्रैल को मुंबई से ठाणे तक चली थी । तब से लेकर अब तक इसने विकास की नई ऊंचाइयां हासिल की हैं । यह पुस्तक 150 वर्षों के दौरान भारतीय रेल के अभूतपूर्व विकास और सफल यात्रा का जीवंत दस्तावेज है । इसमें प्राचीन भाप इंजनों के क्रमिक विकास से लेकर डीजल और बिजली से चलने वाले आधुनिक इंजनों के विकास का लेखा-जोखा है।
पुस्तक के लेखक रतन राज भंडारी ने रेलवे प्रशासन में महत्वपूर्ण पदों पर रहते हुए इस विकास यात्रा को नजदीक से देखा है । उन्होंने इस पुस्तक में ग्रेट इंडियन पेनिनसुला रेलवे कंपनी से लेकर भूमिगत मेट्रो रेल तक भारतीय रेल की विश्वव्यापी छवि का रोचक वर्णन किया है।
परिचय
यह भारतीय रेल के गौरवपूर्ण इतिहास के डेढ़ सौ वर्षों की कहानी है । यह हमारे समृद्ध विकास की कहानी है । नई दिल्ली राष्ट्रीय रेल संग्रहालय के प्रमुख के रूप में 1979 में मेरी नियुक्ति के साथ ही भारतीय रेल के गौरवपूर्ण इतिहास के साथ मेरा संबंध शुरू हुआ । माइकेल सेटो ओ.बी.ई. ने मुझे मूल पाठ पढ़ाया और मुझे इस अमूल्य विरासत को समझने के लिए प्रोत्साहित किया । पिछले 25 वर्षों से मैं इस परियोजना पर कार्य कर रहा हूं और मैंने इसका भरपूर आनंद उठाया है । इस कारण भारतीय रेल के गौरवपूर्ण इतिहास पर अंग्रेजी में पुस्तक लिखने का प्रस्ताव स्वीकार किया । चूंकि इस विषय पर अधिकतर शोध मेरे पिछले 25 वर्षों की लंबी परियोजना का हिस्सा था, इसलिए एक वर्ष से कम समय में इसको लिखना बहुत कठिन नहीं था । इस पुस्तक को मूल रूप से अंग्रेजी में करीब तीन वर्ष पूर्व प्रकाशित किया गया । यह उसका हिंदी रूपांतरण है । इस पुस्तक में 25 अध्याय हैं और इसमें अनेक चित्र भी समाहित किए गए हैं ।
प्रथम अध्याय 'प्रारंभ' में दो प्रमुख कंपनियों-द ईस्ट इंडियन रेलवे कंपनी और ग्रेट इंडियन पेनिनसुला रेलवे कंपनी के गठन से पहले के विचार समाहित हैं । दूसरे अध्याय, 'अग्रज' में पुरानी गारंटी प्राप्त रेलवे कंपनियों के बारे में बताया गया हैं । इन कंपनियों में ईस्ट इंडियन रेलवे और ग्रेट इंडियन पेनिनसुला रेलवे शामिल हैं ।
राज्य अर्थात भारत में ब्रिटिश सरकार ने 1870 के करीब रेलवे के निर्माण और प्रबंधन के क्षेत्र में अपना कदम बढ़ाया । सरकारी अधिकारियों ने महसूस किया कि निजी कंपनियों ने निर्माण की लागत असामान्य रूप से बहुत ज्यादा रखकर राष्ट्रीय राजकोष को खाली किया था और यदि एक प्राइवेट कंपनी यातायात प्रणाली का निर्माण और प्रबंधन कर सकती है तो सरकार इसे और बेहतर तरीके से कर सकती है । अगले 15 वर्षों में कई राज्य रेल परियोजनाएं सामने आईं। ये रेल लाइनें ब्रिटिश इंडिया के पड़ोसी इलाकों तथा भारत के पड़ोसी राज्यों से भी होकर गुजरीं । इस स्थिति में लॉर्ड डलहौजी द्वारा प्रतिपादित 'एक और केवल एक गेज' का मुद्दा टाल दिया गया और लॉर्ड डलहौजी की बुद्धिमत्ता पर सवाल उठाए गए । लंबी बातचीत के बाद भारतीय रेल के लिए एक अन्य गेज को स्वीकार किया गया और इस प्रकार मीटरगेज अस्तित्व में आई । 1870 और 1880 के दशकों में मीटरगेज का ही आधिपत्य रहा । मीटरगेज रेल लाइनों का तेजी से प्रसार हुआ, क्योंकि कंपनियों द्वारा निर्मित ब्रॉडगेज लाइनों के मुकाबले ये काफी सस्ती थीं । इन मुद्दों को अध्याय तीन और चार अर्थात' राजकीय निर्माण, और 'मीटर' गेज प्रणाली का क्रमिक विकास' में सम्मिलित किया गया है ।
ब्रिटिश सरकार की नीति में 1880 के आखिर में एक अन्य परिवर्तन भी देखने में आया । सरकारी अधिकारियों ने मूलभूत प्रश्न उठाया राज्य की क्या भूमिका है? क्या रेलवे चलाना सरकार का कार्य है? या इसे बाजार की ताकतों के लिए छोड़ नहीं देना चाहिए? 125 वर्षों के बाद भी यह प्रश्न हमारे महान देश के बहुत से रेलकर्मियों को आज भी परेशान कर रहा है । नीति में बदलाव से राज्य के लिए तुलनात्मक रूप से बेहतर शर्तो के साथ रेलवे कंपनियों का एक नया वर्ग सामने आया । इनमें बंगाल नागपुर रेलवे कंपनी सबसे आगे थी । इसे विस्तारपूर्वक अध्याय पांच ' नव अनुबंधित गारंटी प्राप्त रेलवे कंपनियां ' में शामिल किया गया है।
इन वर्षों में रेल प्रशासन समय की मांग के अनुसार स्वयं को ढालता रहा है, सरकार की नीतियां में परिवर्तन के कारण यह संभव हुआ है । रेल संगठन अपने लंबे इतिहास में विभिन्न स्थितियों से गुजरा है । 'रेल प्रशासन 'और' रेलवे का पुनर्गठन 'पुस्तक के अध्याय-6 और अध्याय-7 के अंतर्गत हैं । एक प्रमुख परिवर्तन केवल चार वर्ष पहले नौ मौजूदा जोन (रेलवे) में सात नए जोनों के गठन के साथ ही आया है । इसे अध्याय-7 में विस्तृत रूप से बताया गया है ।
अध्याय-8 'रेलवे वित्त' पर विचार-विमर्श किया गया है । भारतीय रेल एक लाभकारी उधम है, लाभ वापसी की दर उचित है और सामान्यत: ब्याज की प्रचलित दरों के साथ-साथ चलती है । यह रेल कर्मचारियों के रेल संपत्ति के प्रति गहरे लगाव और स्वाभाविक वित्तीय सूझबूझ द्वारा ही संभव हुआ है । वर्ष 2006-07 में सकल लाभ 20,000 करोड़ रुपये से अधिक रहा, यह प्रत्येक रेलवेमेन के लिए गर्व का विषय है ।
अभियांत्रिकी के क्षेत्र में, भारतीय रेल की कई उपलब्धियां हैं । पुलों का निर्माण रेलवे इंजीनियरों के सर्वाधिक चमत्कारी कार्यों में से है । प्रबल नदियों से मुकाबला करते हुए उन पर पुल बनाए गये और रेलगाड़ियां चलाईं । इस तरह का कार्य इससे पहले नहीं किया गया था क्योंकि इंग्लैंड और यूरोप में रेलवे प्रणाली को इस प्रकार की समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ा । भारतीय पुल अभियंताओं ने सर्वश्रेष्ठ कार्य किया और 19वी.सदी में बने कुछ पुल तो 21वीं सदी में भी बिना किसी खास परेशानी के कार्य कर रहे हैं । पुलों को अध्याय-9 में सम्मिलित किया गया है। भाप इंजन रेल अभियांत्रिकी के प्रतिभावान नमूने थे । भारत में पहला भाप का इंजन रुड़की के पास बनी गंगनहर के निर्माण के लिए 1851 में लाया गया था । वर्ष 1853 में भारतीय रेल की सेवा में आने के बाद से भाप इंजन भारतीय रेल के कुछ खंडों में नियमित रूप से चल रहे हैं । पर्वतीय रेलों में भाप इंजनों का आज भी नियमित संचालन होता है । भाप के इंजन के लिए लोगों के उत्साह को ध्यान में रखते हुए 1855 में निर्मित 'फेयरी क्वीन' को सर्दियों में प्रत्येक सप्ताह दिल्ली और अलवर के बीच चलाया जाता है । इसे हैरीटेज स्पेशल ट्रेन का दर्जा दिया गया है । भाप इंजन अपने लंबे इतिहास में विभिन चरणों से गुजरे हैं, इन्हें अध्याय-10 में लिया गया है । इस अध्याय के लिए अधिकतर सामग्री भारतीय रेलवे इंजन पर ह्यूज़ की पुस्तकों से ली गई है । इन पुस्तकों ने रेल इंजनों के विभिन्न पक्षों को समझने में मेरी सहायता की है ।
वर्ष 1960 की शुरुआत से 1990 तक ज्यादातर माल डीज़ल इंजनों द्वारा ढोया जाता था । डीज़ल कर्षण भारतीय रेल के सभी चार गेज पर शुरू किए गए और अध्याय-11 में शामिल किए गए हैं।
वाष्प कर्षण के तुरंत बाद, विद्युत कर्षण का प्रारंभ हुआ । मुंबई में 1925 में पहली विद्युत रेलगाड़ी चली। इसके बाद चेन्नई में इसकी शुरुआत हुई । डी.सी. (डायरेक्ट करंट) विद्युत कर्षण मुंबई क्षेत्र में जारी है और अध्याय-12 में सम्मिलित है । द्वितीय पंचवर्षीय योजना (1956-61) में भारतीय रेल के परिदृश्य में एसी. (अल्टरनेटिंग करंट) विद्युत कर्षण की शुरुआत हुई । तब से अब तक ए.सी. विद्युत कर्षण प्रभावी प्रणाली बन गई है । अनेक प्रमुख मार्गों का विद्युतिकरण किया जा चुका है । ए.सी. विद्युत कर्षण का विकास अध्याय-13 में सम्मिलित किया गया है।
अपने कड़े नियमों के पालन के चलते ही रेलवे भूतल परिवहन के रूप में सर्वांधिक सुरक्षित यातायात मुहैया कराता है । रेलवे कार्यप्रणाली और संचालन नियम अध्याय-14 में सम्मिलित किए गए हैं । अध्याय-15 में रेलवे संकेत प्रणाली सम्मिलित है, संकेत प्रणाली रेलवे के नियमों के साथ जड़ित पर्वतीय रेलवे का भारतीय रेलवे प्रणाली में एक विशेष स्थान है मुख्यत: अपनी विचित्रता के कारण पर्वतीय रेलवे की अपनी पहचान है । अंग्रेजों को भारतीय पहाड़ियों से विशेष लगाव था और इन स्थानों पर उन्होंने कई ठिकाने बनाए उन्हें हिल स्टेशन का नाम दिया गया। देश के विभिन्न हिस्सों में पांच रेल लाइनें हैं जो यात्रियों को इन हिल स्टेशनों तक पहुंचाती हैं । ये रेल लाइनें पर्वतीय रेलवे के रूप में खासी मशहूर हैं जिन्हें अध्याय- 16 में सम्मिलित किया गया है। इस अध्याय की अधिकतर सामग्री पर्वतीय रेलवे पर लिखी गई मेरी पूर्व पुस्तकों से ली गई है।
मेट्रो रेल ने 1984 से कोलकाता के नगर यातायात परिदृश्य में एक बड़ा बदलाव ला दिया । यह बदलाव दिल्ली में भी मेट्रो प्रणाली शुरू होने के बाद देखने में आया है । इसके साथ-साथ अन्य महानगरों की मेट्रो प्रणाली को अध्याय-17 में सम्मिलित किया गया है ।
हमारे स्वदेशी रॉलिंग स्टॉक, रेलमार्ग और पुलों के निर्माण के पीछे भारतीय रेलवे के अनुसंधान, डिजाइन और मानक संगठन (आरडीएसओ) का चिन्तन निहित है । विद्युत इंजन के लिए चितरंजन इंजन वर्क्स, डीजल इंजन के लिए डीज़ल इंजन वर्क्स, यात्री कोच के लिए एकीकृत कोच फैक्टरी, और रेल कोच फैक्टरी, कपूरथला तथा पहियों के लिए रेल व्हील फैक्टरी, बंगलुरु में निर्माण कार्य हुए । आरडीएसओ और उत्पादन इकाइयों को अध्याय 18 और 19 में सम्मिलित किया गया है । भारतीय रेल ने 1970 में सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के रूप में नए उद्योग की शुरुआत की, राइट्स और इरकॉन ने सबसे पहले अन्य क्षेत्रों में भी भारतीय रेल को पहचान दिलाई। इन्होंने स्वयं को खुले और प्रतियोगी विश्व में बहुराष्ट्रीय कंपनी के रूप में स्थापित किया। कोंकण रेलवे निगम, केंद्र एवं कुछ राज्यों के वित्तीय संसाधनों का उपयोग करते हुए नई लाइन का निर्माण करने के लिए सामने आया । रेल मंत्रालय के प्रशासकीय नियंत्रण में सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है, ये अध्याय-20 में सम्मिलित हैं।
रेल परिवार, शायद सेना के बाद दूसरा सबसे बड़ा परिवार है जो अपने प्रत्येक सदस्य के विकास, कल्याण और कठिन समय में उसकी देख-रेख करता है। प्रत्येक स्तर पर प्रशिक्षण भारतीय रेल प्रणाली की प्रामाणिकता बन चुकी है। अपने कर्मचारियों की कुशलता बढ़ाने के लिए रेलवे ने अपने संस्थान बनाए हैं, ये अध्याय 21 में शामिल हैं।
नई सदी में चारों महानगरों को जोड्ने वाले स्वर्ण चतुर्भुज मार्गों की अत्यधिक आवश्यकता महसूस की गई। एक छोर से दूसरे छोर सहित छ: मुख्य रेल लाइनें भारतीय रेल की जीवन रेखा हैं और परिवहन की बड़ी जरूरत पूरी करती हैं । स्वर्ण चतुर्भुज को बंदरगाहों से जोड्ने तथा इसके निर्माण की रुकावटों को दूर करने के लिए आने वाले वर्षों में पर्याप्त निवेश का आश्वासन दिया गया है । यह अध्याय 22 में लिया गया है।
अध्याय 23 में भारत- श्रीलंका रेल-समुद्र मार्ग को लिया गया है जो 20 वी सदी की शुरुआत का सपना है, जिसे अभी सच्चाई में बदलना बाकी है। यह अध्याय हमारे बीते हुए श्रेष्ठ कल की याद दिलाता है ।
मैंने राष्ट्रीय रेल संग्रहालय, नई दिल्ली के प्रमुख के रूप में 1979 से 1982 तक कार्य किया और तब से भारतीय रेल की समृद्ध विरासत को सहेजने की मेरी योजना को अध्याय- 24 में सम्मिलित किया गया है । यह योजना वर्षों में विकसित हुई है और यह इस तरह के किसी भी कार्य के लिए मूल दस्तावेज बन सकती है ।
अंतिम अध्याय अभूतपूर्व प्रमुख रेलकर्मियों को समर्पित है और इसमें उन आठ रेलकर्मियों के जीवन का संक्षिप्त लेखा-जोखा है जिन्होंने 19वीं-20वीं सदी की शुरुआत में रेलवे के निर्माण और प्रबंधन में अपना योगदान दिया । इस अध्याय के नौवें हिस्से में माइकेल ग्राहम सेटो का जिक्र है, राष्ट्रीय रेल संग्रहालय के पीछे इसी अनोखे रेलकर्मी का हाथ है । यह अध्याय 1991-1995 तक रेलवे स्टाफ कालेज, वड़ोदरा में मेरे कार्यकाल के दौरान किए गए शोध का परिणाम है । हालांकि यह प्रमुख रेलकर्मियों की अंतिम सूची नहीं है । इसके बाद के प्रकाशनों में और अधिक नाम सामने आएंगे । मैं इतने कम समय में इस तरह की पुस्तक लिखने में अपनी कमियों के प्रति पूर्ण सचेत हूं । मैं इन्हें नम्रता से स्वीकार करता हूं । मुझे हर जगह से मदद मिली है और इसका आभार प्रकट करता हूं । केवल कुछ नामों का उल्लेख करना उचित नहीं होगा । यह रेलकर्मियों की पुस्तक है और सभी के सच्चे दिली सहयोग के बिना इसको लिखना संभव नहीं हो सकता था ।
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