| Specifications |
| Publisher: Aayu Publications, New Delhi | |
| Author Pramod Kumar Mishra | |
| Language: Hindi | |
| Pages: 376 (Throughout Color Illustrations) | |
| Cover: HARDCOVER | |
| 9x6 inch | |
| Weight 630 gm | |
| Edition: 2023 | |
| ISBN: 9789391685294 | |
| HBT989 |
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इस शोध परियोजना को पूरा करने में काफी समय लगा है। वास्तव में, इस कार्य की नींव शायद 1957 में रखी गई थी, जब हम झारखंड के रांची जिले में अनुसूचित जनजाति असुर के बीच फील्डवर्क करने के लिए जोभीपत नामक एक गांव गए थे। हम लखनऊ विश्वविद्यालय में मानव विज्ञान में मास्टर डिग्री के लिए हमारे शोध के अंग के रूप में हमारे फील्डवर्क प्रशिक्षण कार्यक्रम के लिए वहां गए थे। यह उन लोगों से मेरा पहला परिचय था जिन्हें 'जनजाति' के रूप में संदर्भित किया जाता है, और हमारा वह क्षेत्रकार्य वास्तव में एक सुखद अनुभव था। असुर उस समय वनक्षेत्र के अंदरूनी इलाकों में निवास करते थे और वे प्रसन्नचित्त वृत्ति के लोग थे तथा शारीरिक रूप से सुपोषित दिखाई दे रहे थे। वे लोहे के प्रगालक अर्थात लौह अयस्क को पिघलाकर उससे लोहा तैयार करने वाले समुदाय के रूप में जाने जाते थे, लेकिन जिस समय हमने उनके बीच क्षेत्रकार्य के लिए दौरा किया तब उन्होंने लोहा गलाना छोड़ दिया था और वे सभी स्थायी कृषि और छोटे पशुओं के शिकार में लगे हुए थे। हमारे उस गांव से वापस प्रस्थान की पूर्व संध्या पर उन्होंने हमें एक दावत दी जिसमें मुख्य रूप से 'हँड़िया', जो उनकी चावल से तैयार की गई बीयर अर्थात पेय होती थी, उसकी छककर पिलाने की और और खेत से पकड़े गए चूहे का मांस की पार्टी थी। दावत के लिए, हमारे सम्मान में, गांव के लड़के सुबह ही चूहों को फंसाने के लिए खेत चले गए थे। दोपहर में जब हम भोजन के लिए उनके गांव पहुंचे, तो मरे हुए चूहों के ढेर ने हमारा स्वागत किया, जिन्हें बाद में दावत के लिए भूना गया था। मेरी स्मृति में अभी भी उस यादगार रात की चांदनी में नहायी छवियां विद्यमान हैं। वह उस बस्ती में हमारी अंतिम शाम थी।
महीने भर के लंबे समय तक रहने के बाद हम उन लोगों के और उस जगह के चाहने वाले हो गए थे। हमारे यहां रहने के पूरे समय में हमारे साथ युवा और बूढ़े, पुरुषों और महिलाओं सभी के द्वारा बहुत हर्षोल्लास और गर्मजोशी भरी मुस्कान का व्यवहार किया गया इसलिए जैसे ही हमारी वहाँ से वापस लौटने का समय निकट आ रहा था, हम सब थोड़े भावुक हो गए थे। एक शहरवासी होने के नाते, वह रात मेरे जीवन में पहली बार ऐसी रात थी, कि मैं एक जंगल के बीच पूर्णिमा की सुंदरता और आभा को देख और अनुभव कर रहा था। जंगल में रात अन्यथा भयावह होती है। इस तथ्य के बावजूद कि आप अपनी आँखें खुली और कान खड़े रखने की कोशिश कर रहे हैं, आप कभी भी सुनिश्चित नहीं हैं कि आपके आस-पास क्या हो रहा है। जरा सी शोर और हलचल भी आपको परेशान करती है, लेकिन चांदनी इसे बहुत अलग बनाती है। आपको चांद की सुखदायक और सुकून देने वाली रोशनी में दूर की पहाड़ियों के जंगल और पेड़-पौधों की कतार देखने को मिलती है। उस रात की दावत के साथ बहुत ही उल्लास भरा संगीत, नृत्य और हंडिया' शामिल था। असुर युवक-युवतियों ने हमें उत्सव में शामिल होने के लिए बुलाया। उत्सव सुबह के तड़के तक चला। हम सभी ने उस पार्टी का आनंद लिया-हमने नृत्य किया, पिया और खाया लेकिन चूहे का मांस नहीं खाये, हमारी एक सहपाठी को छोड़कर जो स्विट्जरलैंड से थी। उसने भुना हुआ मांस का आनंद लिया लेकिन जब उसने हमारे शिविर में वापस जाने पर यह जाना कि हम सब भले ही नाचे, हंडिया पिये और खाये लेकिन हमने चूहे का मांस नहीं खाया तब वह बहुत असहज महसूस करने लगी थी। वैसे भी, जंगल में रहने वाले लोगों के जीवन पद्धति को देखने का वह एक सुखद अवसर था जो मेरे लिए अविस्मरणीय बन गया लेकिन मैं देश के विभिन्न हिस्सों में जनजातियों के बीच अपने बाद के अनुभवों के बारे में ऐसा नहीं कह सकता, विशेष रूप से दक्षिण भारत के कुरुचिया और मुल्लुकुरुम्बा को छोड़कर। वे, खास तौर पर कुरुचिया लोग, अन्य जनजातियों से काफी अलग हैं और विशेष रूप से अनन्य जीवन जीते हैं।
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