| Specifications |
| Publisher: Bharatiya Jnanpith, New Delhi | |
| Author Ashapurna Devi | |
| Language: Hindi | |
| Pages: 464 | |
| Cover: HARDCOVER | |
| 9.0x6.0 Inch | |
| Weight 640 gm | |
| Edition: 2023 | |
| ISBN: 9788119014088 | |
| HBR104 |
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आशापूर्णा देवी:
बंकिमचन्द्र, रवीन्द्रनाथ और शरत्वन्द्र के बाद बांग्ला साहित्य-लोक में आशापूर्णा
देवी का ही एक ऐसा सुपरिचित नाम है, जिनकी हर कृति पिछले पचास सालों से बंगाल और उसके
बाहर भी एक नयी अपेक्षा के साथ पढ़ी जाती रही है। कोलकाता में 8 जनवरी, 1909 को जनमीं
आशापूर्णा देवी ने किशोरावस्था से ही लिखना शुरू कर दिया था। मेधा के प्रस्फुटन में
आयु कब बाधक हुई। स्कूल-कॉलेज जाने की नौबत नहीं आयी, किन्तु जीवन की पोथी उन्होंने
बहुत ध्यान से पढ़ी परिणामस्वरूप उन्होंने ऐसे महत्त्वपूर्ण साहित्य का सृजन किया जो
गुण और परिमाण दोनों ही दृष्टियों से अतुलनीय है। 142 उपन्यासों, 24 कथा-संकलनों और
25 बाल-पुस्तिकाओं ने बांग्ला के अग्रणी साहित्यकारों में उनका नाम सुरक्षित कर दिया
है। ज्ञानपीठ पुरस्कार, कलकत्ता विश्वविद्यालय के 'भुवन मोहिनी स्मृति पदक' और 'रवीन्द्र
पुरस्कार' से सम्मानित तथा भारत सरकार द्वारा 'पद्मश्री' से विभूषित आशापूर्णा जी अपनी
एक सौ सत्तर से भी अधिक औपन्यासिक एवं कथापरक कृतियों द्वारा सर्वभारतीय स्वरूप को
निरन्तर परिष्कृत एवं गौरवान्वित करती हुई आजीवन संलग्न रहीं। 13 जुलाई, 1995 को कोलकाता
में देहावसान हुआ। भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित उनकी रचनाएँ हैं- सुवर्णलता, बकुलकथा,
प्रारब्ध, लीला चिरन्तन, दृश्य से दृश्यान्तर और न जाने कहाँ कहाँ (उपन्यास); किर्चियाँ
एवं ये जीवन है (कहानी-संग्रह)।
सुवर्णलता
'ज्ञानपीठ पुरस्कार' से सम्मानित श्रीमती
आशापूर्णा देवी की लेखनी
से सृजित यह उपन्यास सुवर्णलता
अपनी कथा-वस्तु और
शैली-शिल्प में इतना अद्भुत
है कि एक बार
पढ़ना प्रारम्भ करने के बाद
इसे छोड़ पाना कठिन
है जब तक सारा
उपन्यास समाप्त नहीं कर लिया
जाता, बल्कि समाप्त करने के बाद
भी उपन्यास के पात्र सुवर्णलता
और सुवर्णलता के जीवन तथा
परिवेश से सम्बद्ध पात्र-मन पर छाये
रहते हैं, क्योंकि ये
सब इतने जीते-जागते
चरित्र हैं, इनके कार्यकलाप,
मनोभाव, रहन-सहन, बातचीत
सब-कुछ इतना सहज,
स्वाभाविक है और मानव-मन के घात-प्रतिघात इतने मनोवैज्ञानिक हैं
कि परत-दर-परत
रहस्य खुलते चले जाते हैं।
निस्सन्देह इस उपन्यास में
लेखिका का स्तर एक
बहुआयाशी विद्रोहिणी का स्वर है।
सुवर्णलता आशापूर्णा के उन तीन
उपन्यासों के मध्य की
कड़ी है जिनके माध्यम
से भारतीय समाज की नारी
के एक शताब्दी का
इतिहास अपने विकासक्रम में
प्रस्तुत हुआ है। श्रृंखला
की पहली कड़ी है
प्रथम प्रतिश्रुति जिसका हिन्दी में एक लघु
नाट्य रूपान्तर भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हो
चुका है; उत्तरवर्ती तीसरी
कड़ी बकुलकथा भी भारतीय ज्ञानपीठ
द्वारा प्रकाशित है। शताब्दी के
तीसरे चरण का परिवेश
बकुलकथा में प्रस्तुत हुआ
है। सम्भव नहीं कि आप
यह उपन्यास सुवर्णलता पढ़ें और बकुलकथा पढ़ने
के लिए आपका मन
आग्रही न हो।
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