आभार
इस पुस्तक की पहली पाण्डुलिपि पर अनेक मित्रों ने मेरा मार्गदर्शन किया है । इनमें डॉ० आर० सी० त्रिवेदी एवं डॉ० इंदु (पाण्डेय) खंडूडी विशेषत' उल्लेखनीय हैं । डॉ० त्रिवेदी ने पाण्डुलिपि के एक एक वाक्य को पढ़ा एवं उसमें ढीलेपन अथवा समस्याओं को बताया । उन्होंने विशेषकर लीलावाद एवं मायावाद पर अपना विचार स्पष्ट करने के लिए कहा । यह दिशा देने के लिए उनका आभार व्यक्त करना चाहता हूँ ।
डॉ० इंदु (पाण्डेय) खंडूडी ने मुख्य प्रश्न यह उठाया है कि युक्ति यदि स्पष्ट हो जाए तो युक्ति नहीं रह जाती है । मुझसे जैसा बन पड़ा वैसा स्पष्टीकरण मैंने दिया है ।
स्वामी कृष्णानंद विरक्त, स्वामी प्रणवानंद, स्वामी ओमपूर्ण स्वतंत्र तथा श्री ए० नागराज एवं अखिलेशजी ने आशीर्वाद देकर मुझे इस पुस्तक को प्रकाशित करने का साहस प्रदान किया है ।
सर्वश्री अखिलेश उरियेन्दु आर्यभूषण भारद्वाज, गुरुदास अग्रवाल, नरेन्द्र दूबे, भारतेन्दु प्रकाश, मोहन बांडे, व्योम अखिल, आर०एल० सिंह, सुभाष सी० कश्यप एवं श्रीधर बोपन्ना ने सुझाव देकर मुझे अनुगृहीत किया है ।'
गीताप्रेस ने योग वासिष्ठ छाप कर जनता को उपलब्ध कराई इसके लिए साधुवाद ।
प्रेमचंद रैकवार ने गीताप्रेस द्वारा प्रकाशित योग वासिष्ठ को साधारण बोलचाल की भाषा में लिखकर इस पुस्तक के प्रकाशन में योगदान दिया है ।
भूमिका
एक बार युवावस्था में श्रीराम को वैराग्य उत्पन्न हो गया था । संसार उन्हें भ्रम मात्र दिखने लगा था और सांसारिक कार्यों में उनकी रुचि नहीं रह गई थी । उसी समय महर्षि विश्वामित्र अयोध्या पधारे थे । उनकी प्रेरणा से गुरु वसिष्ठ ने श्रीराम को उपदेश दिया जिसके फलस्वरूप श्रीराम राजकाज में प्रवृत्त हुए । यह उपदेश योग वासिष्ठ महारामायण के नाम से जाना जाता है ।
कुछ ऐसी ही परिस्थिति मेरी थी । मेरे सामने प्रश्न था कि यदि संसार वास्तव में है ही नहीं तो फिर आर्थिक विकास की क्या उपयोगिता है? जो सुख मुझे विषयभोग आदि में मिल रहा प्रतीत होता है यदि वह भ्रम मात्र है तो लेखन आदि कार्य करने की क्या जरूरत है? इसी बीच मेरे आध्यात्मिक गुरु स्वामी स्वयंबोधानंद ने योग वासिष्ठ का कम से कम दो बार अध्ययन करने का आदेश देने की कृपा की । योग वासिष्ठ के अध्ययन से इन प्रश्नों का मुझे जो उत्तर मिला वह इस पुस्तक में प्रस्तुत किया है ।
इस पुस्तक को लिखने में मेरा एक उद्देश्य यह रहा है कि इन कठिन विषयों पर मेरी समझ साफ हो जाए । मन में यह भी रहा है कि दूसरे पाठकों का मुझे मार्गदर्शन भी मिले । अत: पाठकों से निवेदन है अपनी प्रतिक्रिया मुझे नीचे लिखे पते पर अवश्य भेजने की कृपा करें ।
इस पुस्तक में मेरी समझ का शिष्य और गुरु के संवाद के रूप में जोड़ दिया गया है । वस्तुत: दोनों मैं ही हूँ या यूँ कहा जा सकता है कि शिष्य मेरी बुद्धि है और गुरु मेरी आत्मा है ।
इस पुस्तक के दो पक्ष हैं । एक पक्ष योग वासिष्ठ की कहानियों को साधारण भाषा में आधुनिक समय के लिए उपयुक्त उदाहरणों के साथ बताना है । पुस्तक का दूसरा पक्ष मेरी अपनी समझ को बताना है । यह गुरु शिष्य संवाद के रूप में दिया गया है । सात कहानियों में प्रत्येक में किसी एक विषय पर प्रमुखत: टिप्पणी की गई है । ये विषय इस प्रकार हैं
लीला युक्ति के रूप में ब्रह्म को निष्क्रिय बताना ।
भुशुण्ड स्पाइनल कालम में चक्रों को आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से बताना ।
योग वासिष्ठ की सात कहानियाँ । चूडाला महापुरुषों की सक्रियता का रूप एवं कारण ।
विद्याधरी स्त्रियों की विशेष क्षमताएँ और आत्म साक्षात्कार की समस्याएँ ।
विपश्चित कर्म सिद्धान्त की गलत व्याख्या से दलितों का शोषण एवं भारत का पतन ।
बलि लीलावाद एवं मायावाद का स्पष्टीकरण ।
प्रह्लाद पूर्ण ब्रह्म में विकास ।
विद्वान पाठक अपनी रुचि के अनुसार सातों कहानियों को पढ़ सकते हैं परन्तु उत्तम यही है कि क्रम से पढ़ा जाए ।
इस पुस्तक में कई शब्दों का विशेष अर्थों में उपयोग किया गया है । इन अर्थ को पुस्तक के प्रारम्भ में 'शब्दार्थ' में दिया गया है । बात समझ न आने पर शब्दार्थ का सहारा लेने से स्पष्टता आ सकती है ।
विषय क्रम
1
लीला
2
भुशुण्ड
45
3
चूडाला
62
4
विद्याधरी
111
5
विपश्चित
126
6
बलि
139
7
प्रह्लाद
165
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