| Specifications |
| Publisher: Chaukhamba Sanskrit Pustakalaya, Varanasi | |
| Author Subhash Pandey | |
| Language: Sanskrit Text with Hindi Translation | |
| Pages: 99 | |
| Cover: PAPERBACK | |
| 7.00x5.00 inch | |
| Weight 80 gm | |
| Edition: 2025 | |
| ISBN: 9788197673627 | |
| HBN376 |
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ब्रह्माण्ड के अनेक रहस्यों को उद्घाटित करने वाले ज्योतिष शास्त्र का अत्यन्त विस्तृत क्षेत्र है। मानव जीवन ब्रह्माण्ड के अनेक गतिविधियों के रहस्य से जुड़ा हुआ है। कभी-कभी अपनी आवश्यकताओं के लिए मनुष्य अन्तरिक्ष का मुखापेक्षी हो कर प्रतीक्षारत रहता है तथा अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विकल्प बूढ़ता है परन्तु उसकी समस्या का समाधान तब तक नहीं हो पाता है जब तक अन्तरिक्ष कृपालु नहीं होता। वस्तुतः प्रकृति ने जो भी वैकल्पिक साधन बूढ़े हैं ये मात्र निर्वाह के लिए ही है उनसे सर्वाङ्गीण सिद्धि नहीं होती। वृष्टि भी उन्हीं आवश्यकताओं में एक है। समग्र रूप से भारतीय कृषि वृष्टि के ऊपर ही आश्रित होती है। मानव जीवन भी कृषि विना रह नहीं सकता तथा वृष्टि के विना कृषि हो नहीं सकती। प्राकृत वृष्टि मनुष्य के आधीन नहीं है। अतः येन केन प्रकारेण वह वृष्टि के विकल्प के रूप में नदी, कूप, झोल आदि प्राकृतिक साधनों का दोहन कर अपना कृषि कार्य सम्पन्न करता है। मनुष्य के इस प्रकार की विवशताओं को देखते हुए भारतीय ऋषियों ने प्रकृति के स्वभाव को समझने का प्रयास किया तथा वृष्टि का पूर्व ज्ञान कराने वाले अनेक सूत्रों का प्रणयन किया। प्रकृति के आश्रित रहने वाले पशु-पक्षी मानव की अपेक्षा अधिक संवेदनशील प्रतीत होते हैं क्योंकि वे प्रकृति में होने वाले परिवर्तनों से आने वाली वृष्टि, तूफान तथा भूकम्प आदि का पूर्वज्ञान अपनी चेतन इन्द्रियों से कर लेते हैं। इसलिए ऋषियों ने इस प्रकार के पशु-पक्षियों के लक्षणों एवं उनकी चेष्टाओं का भी अध्ययन एवं परीक्षण किया। आचार्य वराहमिहिर ने कौवे की वाणी का अध्ययन कर उसके विभिन्न स्वरों के अभिप्राय को पहचाना। जब कौवे को भोजन की अपेक्षा होती है तो बुभुक्षा व्यक्त करने वाले स्वर में बोलता है। जव किसी अतिथि के आने की सूचना देता है तब कौवे का स्वर भिन्न होता है। जब किसी अनिष्ट की सूचना देता है तब वह विशेष स्थान पर यथा सूखा वृक्ष, खण्डहर आदि पर बैठ कर दूसरे स्वर में बोलता है। कौवे की बोली पहचानने का अभ्यास आज भी ग्रामीण अंचलों में देखने को मिलेगा। लोक में ही नहीं अपितु साहित्य में भी कौवे की बोली की चर्चा है। राजस्थान की एक बहुत प्रचलित कहावत है- प्रथमः कः सखि पूज्यः काकः किं वा क्रमेलकः।
एक प्रोषित भर्तृका नायिका पति के आने पर अपनी सखि से पूछती है- हे सखि ! पति के आने की सूचना तो पहले कौवे ने दी किन्तु ऊँट ने पति को घर तक पहुँचाया अतः इनमें पहले कौन पूज्य है।
कौवा अपनी वाणी के अतिरिक्त अपनी चेष्टाओं से भी अनेक प्रकार की सूचनायें देता है। मौसम की स्थिति का भी कौवे से सम्यक् ज्ञान हो जाता है तदनुसार ही वह अपने घोसले का निर्माण करता है। उसके निर्माण को देख कर 'भी शास्त्रोक्त नियम से मनुष्य भावी परिस्थिति का अनुमान कर लेता है। यथा-
वृक्षस्य पूर्वशाखायां वायसं करुते गृहम्।
सुभिक्षं क्षेममारोग्यं सुवृष्टिं सस्यसम्पदा ।।
दक्षिणे यदि शाखायां वायसं कुरुते गृहम्।
हाहाकारं महारौद्रं विग्रहं च समादिशेत् ।।
कौवा सर्व सुलभ पक्षी है इसलिए इसका उदाहरण दिया गया इसके अतिरिक्त भी अन्य अनेक पशु एवं पक्षी हैं जिनकी चेष्टाओं का उल्लेख संहिताओं में किये गये हैं। इनकी कुछ चेष्टायें ऐसी होती हैं जिनका सम्बन्ध भावी घटनाओं से होता है। इस प्रकार की चेष्टाओं को शकुन कहा गया है। रामायण, महाभारत, पुराण तथा काव्य ग्रन्थों में सामान्य यात्राओं एवं युद्ध यात्राओं के प्रसंग में शकुनों का उल्लेख मिलता है। इनसे कार्य की सिद्धि या असिद्धि अथवा विजय या पराजय का पूर्वानुमान किया जाता था।
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