| Specifications |
| Publisher: Chintan Prakashan, Kanpur | |
| Author K. M. Mayavanshi, Meena Patel | |
| Language: Hindi | |
| Pages: 183 | |
| Cover: HARDCOVER | |
| 9x6 inch | |
| Weight 310 gm | |
| Edition: 2011 | |
| ISBN: 9788188571420 | |
| HBM848 |
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प्रत्येक शब्द एक सांस्कृतिक इतिहास होता है और शब्द साहित्य की सबसे न्यूनतम इकाई है इसलिए शब्द-शब्द में केवल व्युत्पत्ति या निरुक्त ही नहीं होता बल्कि शब्द-शब्द में संपूण सांस्कृक्तिक चेतना टपकती और महकती रहती है। इसीलिए तो सद्यः प्रकाशित 'शब्दों का सफर' नामक कोश में भी कोश के लेखक ने शब्दों के जरिये ही यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि अगर शब्द का संपूर्ण विकासगत इतिहास खोजा जाय या खोज को गहरी बनाकर सारे संदर्भ चुने जाय तो अलग-अलग देश अलग-अलग राज्य, प्रान्त का व्यक्ति भी मनुष्यतः रूप में एक साथ जुड़ा हुआ सिद्ध हो सकता है। इसीलिए हिन्दी साहित्य या कोई भी साहित्य की सांस्कृक्तिक चेतना तो उसकी प्राण होती है।
इसी संदर्भ में यदि संस्कृत साहित्य की चेतना के कारण उस भाषा को संस्कृत और संस्कार संपन्न होने के कारण प्रथम सांस्कृतिक भाषा या साहित्य माना जाता है तो उसी से निसृत दुहिता हिन्दी के साहित्य को संस्कृक्तिक चेतना में अनुप्राणित क्यों नहीं माना जा सकता ? अतः मैं तो कहूँगा कि आदिकाल से लेकर आधुनिककाल तक के हिन्दी साहित्य का प्रत्येककाल सांस्कृतिक चेतना से लबालब या लबरेज है। उदाहरण के तौर पर देखा जाय तो समग्र हिन्दी साहित्य के इतिहास में उसके मध्यकाल का साहित्य स्वर्णयुगीन साहित्य कहा जाता है और स्वतः सिद्ध है कि शाश्वत सांस्कृतिक मानव मूल्यों का आधार और आधारभूत सत्व भक्तिकाल में भक्तिकाल की दोनों धाराओं की चारों शाखाओं में शब्द-शब्द में स्पंदित रूप में महसूस किया जा सकता है। इस अर्थ में सूर साहित्य, तुलसी का साहित्य हो या निर्गुण संतों की संतवाणी हो अथवा प्रेमाश्रयी सूफियों की प्रेम की पीर हो आज तक भी अपेक्षा के धरातल पर हर कवि के लिए वांछनीय है। इन अर्थों में आज का साहित्यकार भी या समसामायिक लेखक भी थोड़ा बहुत ही सही पर उन मूल्यों, विचारों, संवेदनाओं से अगर उत्प्रेरित या अनुप्राणित होगा तो इस एहसास को भी संभव होने में देर न लगेगी कि हिन्दी साहित्य आज भी संपूर्ण सांस्कृतिक चेतना से गौरवान्वित होगा। भले ही ढिंढोरा पीटा जा रहा हो कि मूल्यों का ह्यस हो गया है या साहित्य भावशून्य और संवेदना शून्य बन गया है और साहित्यकार अनुभूति शून्य। मेरी अटूट आस्था है कि हिन्दी साहित्य के केवल मध्ययुगीन साहित्य से भी साहित्यकार जुड़ेगा तो वह विश्व साहित्य को भी अपने चरणचिह्नों पर चलाने के लिए बाध्य कर देगा।
इस संदर्भ की पृष्ठभूमि में ये तथ्यगत विवेचन है कि मैंने ही मेरे महाविद्यालय में 16, 17 जनवरी-2010 को 'भारतीय साहित्य में सांस्कृतिक चेतना' विषय पर राष्ट्रीय स्तर का सेमीनार आयोजित किया था जिसमें मेरे विद्वान साथियों और प्राध्यापक मित्रों ने अपने-अपने शोधपत्र तथा लेख निबंध प्रस्तुत किये थे। जिससे संगोष्ठी को और विषय विशेष को भी चार चाँद लग गये थे। इसी उपलब्धि को मैंने संकलित और संपादित करके एक ग्रंथ भी तैयार किया था जो इस शीर्षक 'आधुनिक हिन्दी उपन्यास साहित्य में संस्कृति' से प्रकाशित हो चुका है। सुधी विद्वानों ने उसकी भी भूरि-भूरि प्रशंसा संप्रेषित की थी। आशा ही नहीं विश्वास है कि मेरे इस कष्ट साध्य कार्य को भी हृदय से स्वीकार करके अपना उचित प्रतिसाद मुझे भेजेंगे तो मैं अपने श्रम को सफल समझेंगा।
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