| Specifications |
| Publisher: Penguin Books India Pvt. Ltd. | |
| Author Charanjeet Singh | |
| Language: Hindi | |
| Pages: 82 | |
| Cover: PAPERBACK | |
| 8.5x5.5 Inch | |
| Weight 80 gm | |
| Edition: 2008 | |
| ISBN: 9780143102540 | |
| HBR100 |
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दास्तान
हज़ार दिन एक असाधारण
और अछूती कहानी है। देश-विभाजन
के समय की यह
कहानी उस काल की
साधारण कहानियों से भिन्न है।
इतिहास के पृष्ठों पर
सन् 1947 की महत्ता लिख
दी गई क्योंकि इस
वर्ष सदियों की गुलामी के
बाद देश आज़ाद हुआ
था, जिस पर गर्व
करना और हर्षित होना
राष्ट्रवाद का कर्तव्य बन
गया। परंतु इतिहास को यह भी
लिखना होगा कि इस
वर्ष हज़ारों बर्ष पुरानी भारतीय
संस्कृति अपनी गिरावट के
रसातल तक पहुंची थी
और विश्व इतिहास में मानवता की
नीचता का एक नया
कीर्तिमान स्थापित हुआ था। संवेदनशीलमना
व्यक्तियों के लिए यह
लज्जा, शर्म और मातम
का वर्ष था। उपमहाद्वीप
में दो नए राष्ट्रों
की स्थापना की घोषणा के
साथ-साथ ही सीमा
के आर-पार अल्पसंख्यकों
पर जो मुसीबतों का
पहाड़ टूटा, जिस-जिस पर
जो बीती, उसकी कहानी दूसरों
की कहानी से अधिक दिल
दहलाने वाली थी। मगर
इस अनोखी कहानी के अनोखे नायक
पर जो गुज़री, शायद
ही किसी और के
नसीब में था। जब
क़बायली आक्रमणकारी मुज़फ़्फ़राबाद जिले में घृणा,
हिंसा और आतंक का
शासन स्थापित कर चुके और वहां के गैर-मुसलमान
भागते-गिरते, कटते-मरते घरों से दूर शरण तलाश रहे थे, तब चरणजीत सहगल ने जीवन और मृत्यु
की आंखमिचौनी को समीप से देखा। गहन अंधकार में आशादीप देखे । राक्षसों की नगरी में
मानव-दर्शन किए और घृणा, हिंसा और आतंक के सत्ता क्षेत्र में प्यार, विश्वास और निर्भीकता
का विद्रोह-स्वर देखा-सुना। अनाथ सहगल को एक महिला मिली, जिसने उसे कई माताओं का प्यार
दिया। उसे एक बाप मिल गया, जिसने अपने सगे बेटे की बलि देकर उसकी जान बचाई। उसने युवा
सौंदर्य का ऐसा जादू देखा, जिसने उसमें तरुणाई की आत्मा जाग्रत कर दी। देखते ही देखते
एक प्रेम-नगरी बस गई, जिसमें उसका कोई शत्रु नहीं था। यह एक भोले पहाड़ी युवक की सीधी-सादी
हस्ती का चमत्कार था या मिट्टी के अंतःकरण का कमाल? मगर वातावरण में घुटन क्यों थी?
अपना देश पराया क्यों हो गया? सहगल वहां से भागा क्यों? दास्तान हज़ार दिन के ठोस और
नंगे सत्य और भी बहुत से प्रश्न पूछते हैं-मृत्यु और जीवन, घृणा और प्रेम, शैतान और
इंसान के बीच की दूरियां कितनी लंबी हैं और कैसे तय होती हैं? कब धर्म का उन्माद ईश्वरीय
वरदान में बदल जाता है? आदमी भेड़िया क्यों बनता है और फ़रिश्ता क्यों? मानवीय संबंध
कब गहन हो जाते हैं और कब खोखले? सहगल ने किसी सिद्धांत की ऐनक से वास्तविकताओं को
नहीं देखा और न ही इन वास्तविकताओं से कोई सिद्धांत बनाने का प्रयास किया है।
सन् 1947 ।
मुल्क आज़ाद हुआ, मगर दो हिस्सों में बंटकर। धर्म के आधार पर मानव इतिहास का सबसे बड़ा
पलायन हुआ। बादी-ए-कश्मीर में कुछ लोग सरहद के उस पार फंसे रह गए। वे तीन सौ लोग हिंदुस्तान
आना चाहते थे, मगर कहीं से कोई मदद नहीं मिल रही थी। क़बायली हमलों और ख़ौफ़ ने जीना
मुहाल कर दिया था। इन्हीं लोगों में एक थे इस पुस्तक के लेखक चरणजीत लाल सहगल । यह
पुस्तक आपबीती है उन हज़ार दिनों की जो ख़तरे और हिंदुस्तान आने की जद्दोजहद से जूझते
हुए लेखक और उनके साथियों ने पाक-अधिकृत कश्मीर में बिताए थे, और उन नेकदिल मददगार
लोगों की जिन्होंने मज़हब और नफ़रत की हदों के पार जाकर उन्हें हर क़दम पर हौसला दिया।
विभाजन की विभीषिका को एक बार फिर ताज़ा कर देने वाली यह दास्तान नई-पुरानी दोनों पीढ़ियों
के लिए एक नया अनुभव होगी।
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